किसान की कंगाली दूर होगी

प्रधानमंत्री मोदी और कुछ मुख्यमंत्रियों समेत विपक्ष के अधिकतर दल और नेता भी समवेत स्वर में ‘किसान’, ‘किसान’ ऐसे चिल्ला रहे हैं मानो भारत में किसान ही एकमात्र समुदाय, जमात और वंचित पेशेवर हैं! कई बार ऐसा भी एहसास होता है मानो पूरा देश ही ‘किसान, किसान’ कर रहा हो! मानो यही एकमात्र चिंता और सरोकार हों! मोदी कैबिनेट ने किसानों की 14 प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने का फैसला लिया है। औसतन 3.7 फीसदी से 52.47 फीसदी तक की वृद्धि की गई है। एमएसपी की औसत बढ़ोतरी 13 फीसदी है। इधर मोदी सरकार ने यह फैसला लिया, उधर कर्नाटक सरकार ने किसानों के करीब 34,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने की घोषणा की है और अमेठी में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किसानों से संवाद किया। इससे पहले उप्र में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी, तो किसानों के करीब 35,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ  करने का फैसला कैबिनेट की पहली ही बैठक में लिया गया था। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह फिर मुख्यमंत्री बने, तो कांग्रेस सरकार ने किसानों के कर्ज माफ किए। इनसे भी पहले मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों को कर्ज-मुक्ति दिलाई थी। इधर के कालखंड में केंद्र की यूपीए सरकार-1 ने करीब 70,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने की घोषणा की थी। बुनियादी तौर पर कर्ज माफी की यह परंपरा 1987 में हरियाणा की देवीलाल सरकार ने शुरू की थी। सवाल हो सकता है कि इतनी कर्ज माफी की कोशिशों के बावजूद भारतीय किसान दुनिया में सर्वाधिक कर्जदार इकाई, पेशेवर क्यों है? क्या कर्ज माफी के तमाम ऐलान फर्जी और दिखावटी रहे हैं? चूंकि अब आम चुनाव से 10 माह पूर्व ही मोदी सरकार ने एमएसपी में बढ़ोतरी की घोषणा की है, लिहाजा सवाल स्वाभाविक है कि क्या अब किसान की कंगाली दूर हो जाएगी? क्या वह कर्जमुक्त हो सकेगा? क्या किसान की आमदनी में दोगुनी बढ़ोतरी हो सकेगी? क्या किसानी की लगातार घटती दर पर विराम लगेगा और किसान ‘अन्नदाता’ के किरदार में कायम रहेगा? विशेषज्ञों और आर्थिक एजेंसियों के आकलन हैं कि धान की एमएसपी बढ़ने से करीब 12,000 करोड़ रुपए का बोझ मोदी सरकार पर पड़ेगा। सभी फसलों का बोझ करीब 30,000 करोड़ रुपए होगा। खाद्य सबसिडी 2 लाख करोड़ रुपए को पार कर सकती है, जबकि बजट में 1.70 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। सरकार का घाटा भी बढ़ेगा और महंगाई भी 0.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि एमएसपी का लाभ मात्र 6 फीसदी बड़े किसानों को ही मिल पाता है, जबकि करीब 94 फीसदी किसान अपनी फसल कम दामों पर भी बेचने को बाध्य होते हैं। उन किसानों पर कई तरह के दबाव  होते हैं, कर्ज चुकाना होता है, घर खर्च की जिम्मेदारी है, खेत और नई फसल के आर्थिक दबाव होते हैं और फसल का भुगतान समय पर नहीं मिल पाता, लिहाजा वे औने-पौने दाम पर भी फसलें बेचते रहे हैं। इसके अलावा, कटाई के वक्त भी फसल के दाम घट जाते हैं। बेशक दावा किया जाता रहे, लेकिन किसान को फसल की कुल लागत के डेढ़ गुना दाम न तो मिले हैं और न ही आगे आसार हैं। स्वामीनाथन आयोग की रपट को कितना भी अलापते रहें, लेकिन किसान संकट में ही रहने को अभिशप्त हैं। मोदी सरकार ने जिस एमएसपी का फैसला लिया है, वह कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के मुताबिक है। सिर्फ धान का ही उदाहरण लें, तो विशेषज्ञों का मूल्यांकन है कि सभी खर्चे जोड़ लें, तो धान का एमएसपी 590 रुपए कम है। उत्पादन लागत में किसान के सभी खर्चे शामिल नहीं हैं। मोदी सरकार और उसके समर्थक फुलफुला रहे हैं कि उन्होंने किसान को न जाने कितना भारी और कीमती तोहफा दे दिया है! अभी जानकारी नहीं मिल पाई है कि देश के कोने-कोने, गांवों और दूरदराज के अंचलों में खेतों में काम कर रहे किसान की प्रतिक्रिया क्या है? एमएसपी को बढ़ाने से वह खुश है या इसे चुनावी खेल मानकर वह भी खारिज कर रहा है, लेकिन हमने बात शुरू की थी कि सिर्फ किसान की चिंता ही सत्ता और सियासत पर सवार क्यों है? किसान के अलावा, गरीब, कंगाल, दबे-कुचले, शोषित, पीडि़त, वंचित कई और समुदाय भी हैं। उनकी आर्थिक विपन्नता के सरोकार भी दिखने और किए जाने चाहिए। किसान को वोटबैंक नहीं बनाया जाना चाहिए, जबकि दूसरे अभावग्रस्त समुदाय भी देश के नागरिक हैं, मतदाता हैं। उन्हें भी बेलआउट पैकेज दिए जाने चाहिए। बेशक किसान ‘अन्नदाता’ है, देश को आत्मनिर्भर बनाने में उसकी खास भूमिका रही है, लेकिन अन्य समुदायों का महत्त्व भी कमतर नहीं आंका जा सकता है।