गुरु पूर्णिमा पर उनका स्मरण

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

अंबेडकर भीषणतम परिस्थितियों की आग से तपकर निकले थे। समाज में से मिले अपमान के कारण गुस्से में भी थे, लेकिन अंतिम क्षण तक राष्ट्रहित के लिए लड़ते रहे। अंबेडकर बाहर और भीतर से एक समान थे। उनके पास छुपाने के लिए कुछ नहीं था। राजनीति उनके लिए साध्य नहीं साधना थी। यही कारण था अपने राजनीतिक हित के लिए वह छल-कपट करना नहीं जानते थे। इसलिए सीधा-सपाट बोलते थे। बहुत से मुद्दों पर उनके विचार महात्मा गांधी से नहीं मिलते थे। अंबेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह इसे भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा अवगुण मानते थे…

कल गुरु पूर्णिमा थी। भारत की संस्कृति में गुरु की महत्ता सर्वाधिक है। ‘गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः, गुरु साक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः’ का जाप तो होता ही है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राज्य शिक्षा मंत्री डा. सत्यपाल सिंह का कहना है कि जबसे देश ने गुरु को भुला दिया, तभी से देश का पतन शुरू हुआ। आधुनिक युग के जिन गुरुओं के बारे में देश मानता है कि उन्होंने देश को एक नई दिशा दी, उनमें महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, गुरु गोलवलकर, डा. राधाकृष्णन, भीमराव रामजी अंबेडकर और एपीजे अब्दुल कलाम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अंबेडकर भीषणतम परिस्थितियों की आग से तपकर निकले थे। समाज में से मिले अपमान के कारण गुस्से में भी थे, लेकिन अंतिम क्षण तक राष्ट्रहित के लिए लड़ते रहे। अंबेडकर बाहर और भीतर से एक समान थे। उनके पास छुपाने के लिए कुछ नहीं था। राजनीति उनके लिए साध्य नहीं साधना थी। यही कारण था अपने राजनीतिक हित के लिए वह छल-कपट करना नहीं जानते थे। इसलिए सीधा-सपाट बोलते थे। बहुत से मुद्दों पर उनके विचार महात्मा गांधी से नहीं मिलते थे। बहुत से मुद्दों पर नेहरू के विचार भी गांधी जी से नहीं मिलते थे, लेकिन गांधी से विचार भिन्नता को लेकर दोनों का गांधी से व्यवहार अलग था। जिन दिनों दलितों के प्रश्न को लेकर अंबेडकर और गांधी आमने-सामने थे, तो मध्यस्थता के लिए गांधी जी के दो अनुयायी वालचंद हीराचंद और सेठ जमना लाल बजाज अंबेडकर से मिले। उन्होंने अंबेडकर को कहा कि वह गांधी कैंप में क्यों नहीं शामिल हो जाते? यदि वह ऐसा करेंगे, तो उनके पास वंचित श्रेणियों के उत्थान के लिए अपार धन स्रोत उपलब्ध हो सकेंगे। अंबेडकर ने उन्हें स्पष्ट रूप से कहा कि कुछ मुद्दों पर उनके गांधी जी से महत्त्वपूर्ण मतभेद हैं। तब दोनों ने कहा कि उन्हें नेहरू को देखना चाहिए। नेहरू के भी गांधी से विचार नहीं मिलते, लेकिन उन्होंने फिलहाल अपने विचारों को छुपाया हुआ है और गांधी के साथ हैं, इसलिए सफल हैं। अंबेडकर ने कहा कि मुझ पर नेहरू का उदाहरण लागू नहीं होता, जो सफलता के लिए अपनी आत्मा का बलिदान दे देगा। मैं राजनीतिक हित के लिए अपनी वैचारिक निष्ठा का बलिदान नहीं कर सकता। अंबेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह इसे भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा अवगुण मानते थे। राजनीति में सक्रिय लोग साथियों की तलाश में नहीं, बल्कि चेलों की तलाश में रहते हैं। इसी से व्यक्ति पूजा शुरू होती है, जिसे केवल सुनाने का गुण आता है, सुनने का नहीं। वह व्यक्ति पूजा या नायक पूजा को जन्म देता है। अंबेडकर कहा करते थे कि भक्ति व्यक्ति पूजा को जन्म देती है। वह इस मामले में आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कोनैल को उद्धृत करते हैं, जिसने कहा था कि ‘अपने सम्मान को खोकर कोई पुरुष कृतज्ञ नहीं हो सकता। अपने सतीत्व को खोकर कोई स्त्री कृतज्ञ नहीं हो सकती और और अपनी स्वतंत्रता को खोकर कोई राष्ट्र कृतज्ञ नहीं हो सकता।’ किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के लिए यह चेतावनी अधिक आवश्यक है। यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या जिसे भक्ति मार्ग या वीर पूजा कहा जाता है, उसका भारत की राजनीति में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान है, जितना किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं होता। धर्म में भक्ति आत्ममोक्ष का रास्ता हो सकती है, पर राजनीति में भक्ति या वीर पूजा पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है। उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत के भविष्य और जन-जन के उद्धार को समर्पित कर दिया था।  अंग्रेजों के चले जाने के बाद उनकी चिंता भारत के भविष्य को लेकर बनी हुई थी। 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के अंतिम सत्र को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा था ‘26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वतंत्रता का परिणाम या भविष्य क्या होगा? क्या वह अपनी स्वाधीनता की रक्षा कर पाएगा या उसे फिर खो देगा, मेरे मन में सर्वप्रथम यह विचार आता है। यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वाधीन देश न रहा हो। असल बात यह है कि एक बार वह अपनी स्वाधीनता को खो चुका है। क्या वह दोबारा भी उसे खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। जो तथ्य मुझे बहुत परेशान करता है, वह यह है कि भारत ने पहले एक बार अपनी स्वाधीनता खोई ही नहीं, बल्कि अपने ही कुछ लोगों की कृतघ्नता तथा फूट के कारण ऐसा हुआ। सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण करते समय दाहिर राजा के सेनापति ने मोहम्मद बिन कासिम के दलालों से घूस लेकर अपने राजा की ओर से लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने मोहम्मद गौरी को भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं की सहायता का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहे थे, तब अन्य मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे, तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। सन् 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी, तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे। क्या इसी इतिहास की पुनरावृत्ति होगी, इस विचार से मैं चिंतित हूं। इस तथ्य का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे, मैं नहीं जानता, परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर रखेंगी, तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवतः वह हमेशा के लिए खो जाए। जाति और मजहब के नाम पर समाज बंटा रहा, तो शत्रु फिर क्यों नहीं आ सकता? सावधान रहना भी जरूरी है और मूल कारण को दूर करना उससे भी जरूरी है, लेकिन अंबेडकर तो और भी दूर की सोचते हैं। राजनीतिक समानता किसी भी देश के लिए उत्तम व्यवस्था ही मानी जाती है, लेकिन क्या वही पर्याप्त है? राजनीतिक समता किसी देश को स्थायित्व नहीं दे सकती। उसके लिए आर्थिक व सामाजिक समानता होना भी जरूरी है।’ बाबा साहेब के ये प्रश्न आज भी किसी सीमा तक अपने उत्तर की तलाश में हैं। आज गुरु पूर्णिमा के दिन अंबेडकर के इन प्रश्नों के उत्तर की तलाश जरूरी है और उन सही उत्तरों में ही भारत का भविष्य छिपा है।

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