दक्षिण भारत ने बखूबी निभाया था दायित्व

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

शायद पूरे तमिलनाडु में दोपहर एक से लेकर चार बजे तक मंदिर बंद कर दिए जाते हैं। मंदिरों के कपाट बंद करने के लिए पूरे तमिलनाडु में ऐसी अभूतपूर्व एकता कैसे पनपी होगी? इसका भी कारण है, तमिलनाडु के सभी मंदिरों पर सरकार ने नियंत्रण कर लिया है। अब वहां न कोई पुजारी है, न पुरोहित है। अब वहां केवल सरकारी कर्मचारी हैं। वेतनभोगी सरकारी कर्मचारी। इतना ही नहीं मंदिरों के भीतर ही कई जगह तो देवमूर्ति के बिलकुल अगल-बगल में सरकारी कार्यालय बना दिया गया है। इसलिए और किसी काम में एकता और अनुशासन हो या न हो, मंदिरों को बंद करने में अद्भुत एकता स्थापित हो गई है…

कुछ दिन पहले यानी 26 जून को नटराज के मंदिर गया था। भगवान शंकर को ही नटराज कहते हैं। अतः शंकर अथवा नटराज के मंदिर तो हिंदुस्तान के हर गांव में मिल जाएंगे, लेकिन इस नटराज मंदिर की अलग कहानी है। इसलिए सोचा इस बार इसी की कथा कही जाए। नटराज का यह मंदिर तमिलनाडु के कडलूर जिला के चिदंबरम नामक नगर में स्थित है। जिनका काम इतनी जानकारी से चल सकता है, उनके लिए तो ठीक है, लेकिन जिनके लिए अब प्राचीन नगरों की पहचान मंदिरों से न होकर अन्य कारणों से हो गई है, उनके लिए यह जानकारी पर्याप्त होगी कि चिदंबरम में ही अन्नामलै विश्वविद्यालय है, जिसके पत्राचार निदेशालय के माध्यम से लाखों उत्तर भारतीयों ने विभिन्न डिग्रियां प्राप्त कीं। चिदंबरम पुडुचेरी से लगभग सौ किलोमीटर दूर है। मैं पुडुचेरी विश्वविद्यालय में एक सरकारी काम से आया था, लेकिन गलती से एक दिन पहले पहुंच गया था। गलती को ठीक करने का एक ही तरीका हो सकता था कि नटराज के दर्शन करूं, इसलिए मैं चिदंबरम आया था। चिदंबरम को तिल्लै भी कहते हैं। तिल्लै पेड़ों की एक प्रजाति का नाम है। शताब्दियों पहले यह स्थान तिल्लै पेड़ों का जंगल ही था, इसलिए इसको तिल्लैवनम भी कहते थे। इस जंगल में स्वयंभू शिवलिंग प्रकट हुए। जहां शिव होंगे वहां पार्वती भी होंगी और फिर वही पुरानी कहानी शुरू हो गई, दोनों में से कौन बड़ा है, शिव या पार्वती। अब इसका निर्णय कौन करे और कैसे करे? आमतौर पर ऐसे विवादों का निर्णय किसी प्रतियोगिता से ही होता है। शिव और पार्वती दोनों नृत्य करेंगे, जो जीत गया वही बड़ा माना जाएगा, लेकिन इससे पहले एक और शर्त भी बांध दी गई। जो भी इस प्रतियोगिता में हार जाएगा, वह तिल्लैवनम यानी चिदंबरम की सीमा से बाहर चला जाएगा। तीन हजार तिल्लै पंडित इसके साक्षी बने।

पार्वती को लगा कि इसमें तो वे निश्चय ही जीत जाएंगी, क्योंकि स्त्रियां वैसे भी नृत्य कला में प्रवीण होती हैं। नृत्य शुरू हुआ, घात-प्रतिघात होने लगे, लेकिन यह नृत्य के घात-प्रतिघात थे, इसलिए इसमें चिंतित होने का तो कोई कारण नहीं था। सचमुच ही नटराज शंकर कहीं कमजोर पड़ने लगे, तब उन्होंने अंतिम और निर्णायक भंगिमा का प्रदर्शन किया- आनंद तांडव। वह नृत्य करते-करते अपनी एक टांग उठाकर सिर से भी ऊपर ले गए। यह नृत्य की पराकाष्ठा थी। तिल्लै पंडित सांस रोके सब देख रहे थे, मानों पृथ्वी की गति भी रुक गई हो। पार्वती यह भंगिमा नहीं कर पाईं। स्त्रियोचित लज्जा ने उनको रोक लिया, लेकिन कारण जो भी हो पराजय तो आखिर पराजय ही है। पार्वती को तिल्लै की सीमा से बाहर जाना पड़ा। इस कथा को शताब्दियां बीत गईं। तिल्लै के पेड़ों की सरसराहट से यह कथा हिंदुस्तान के कोने-कोने में फैलती गई, लेकिन यह सरसराहट दिल्ली में आकर दम तोड़ देती थी। तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली में महमूद गौरी के वंशजों का कब्जा हो गया, जो भारत में दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना जाता है। दिल्ली सल्तनत 320 साल तक चली और इसका अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी हुआ।

भारत के इतिहास की किताबों में आमतौर पर पढ़ाया जाता है कि दिल्ली सल्तनत के विदेशी मुसलमान शासकों ने कमोबेश सारे भारत पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। लंबे अरसे तक दक्षिण भारत में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पहुंच नहीं हो पाई थी। वहां चोल और पल्लव वंश के महाप्रतापी शासकों का स्वशासन था। इधर उत्तर भारत में ये विदेशी आक्रमणकारी एक-एक कर प्राचीन मंदिरों और विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर रहे थे और दक्षिण भारत में चोल शासक आकाश को छूते वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने भारत के सांस्कृतिक प्रवाह के प्रतीक मंदिरों का निर्माण कर रहे थे। दक्षिण भारत के प्रतापी शासकों ने भारतीय संस्कृति की सार-संभाल का दायित्व उस संकटकाल में भली-भांति निभाया। चिदंबरम के नटराज मंदिर की कथा भी यहीं से शुरू होती है। चोल नरेश ने चिदंबरम में बारहवीं शताब्दी के मध्य में दो मंदिरों का निर्माण शुरू किया। नटराज का मंदिर तिल्लैवनम की सीमा के अंदर और पार्वती अम्मा का मंदिर तिल्लै की सीमा से बाहर। पार्वती अम्मा को दक्षिण के लोग काली अम्मा या देवी अम्मा भी कहते हैं। देवी अम्मा शिव से पराजित हो चुकी थीं, इसलिए वह तिल्लै की सीमा से बाहर ही रह सकती थीं, लेकिन पराजित हो जाने के कारण पार्वती अम्मा गुस्से में थीं। तिल्लै की सीमा से बाहर अम्मा गुस्से में बैठी रहे, यह भी तो ठीक नहीं लगता। पार्वती अम्मा को कैसे शांत किया जाए, ताकि वह पुनः प्रसन्न हो जाएं। तब सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने पार्वती अम्मा को वेद पाठ सुनाया। उनकी प्रशंसा की, तब वह शांत हुईं। इधर तिल्लैवनम में नटराज का विशाल मंदिर आकार ग्रहण करने लगा। मंदिर में प्रवेश के लिए चार द्वार बन रहे थे। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम किसी भी दिशा से मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर के द्वार चारों वर्णों के लिए खुले हैं। सभी दिशाएं, सभी रास्ते एक ओर ही जाते हैं, लेकिन भक्तजन हैं कि उस तक पहुंचने से पहले रास्ते में ही लड़ पड़ते हैं। भगवान कहीं पीछे छूट जाता है। उस तक पहुंचने के रास्ते को लेकर ही लहूलुहान होने लगते हैं। यह कथा किसी एक स्थान की नहीं है, किसी एक देश की नहीं है, सब जगह एक ही मंजर दिखाई देता है। शायद नटराज के परिसर निर्माण वाले इस इतिहास को जानते थे, इसलिए उन्होंने यह नया प्रयोग किया था। नटराज तक पहुंचने के लिए हर दिशा से आता हुआ एक रास्ता, लेकिन फिलहाल मैं इस मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता। पुडुचेरी से विशेष रूप से नटराज के दर्शन करने के लिए ही चिदंबरम हम आए हैं। हम यानी मैं और मेरी पत्नी रजनी। टैक्सी वाले ने एक बजकर दस मिनट पर नटराज मंदिर के बाहर ला खड़ा किया था, लेकिन मंदिर प्रवेश का भव्य द्वार बंद है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण के चारों द्वार बंद हैं। क्यों बंद हैं, यह टैक्सी ड्राइवर बता रहा है, लेकिन हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा, क्योंकि टैक्सी ड्राइवर को तमिल के सिवा कुछ नहीं आता और मुझे तमिल के चंद वाक्यों से आगे इल्लै यानी कुछ समझ नहीं आया, लेकिन अब मंदिर के चारों दरवाजे बंद हैं। शायद पूरे तमिलनाडु में दोपहर एक से लेकर चार बजे तक मंदिर बंद कर दिए जाते हैं। मंदिरों के कपाट बंद करने के लिए पूरे तमिलनाडु में ऐसी अभूतपूर्व एकता कैसे पनपी होगी? इसका भी कारण है, तमिलनाडु के सभी मंदिरों पर सरकार ने नियंत्रण कर लिया है। अब वहां न कोई पुजारी है, न पुरोहित है। अब वहां केवल सरकारी कर्मचारी हैं। वेतनभोगी सरकारी कर्मचारी। इसलिए और किसी काम में एकता और अनुशासन हो या न हो, मंदिरों को बंद करने में अद्भुत एकता स्थापित हो गई है। चार बजे मंदिर के दरवाजे खुले, जिस प्रकार का तिलस्म देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में पढ़ने को मिलता है, उसी प्रकार का दृश्य द्वार खुलते ही दिखा। नटराज की इस मंदिर नगरी की एक और विशेषता है, विष्णु जी का विशाल मंदिर वहीं है। विष्णु भगवान लेटे हुए हैं। दक्षिण में शिव व विष्णु के भक्तों का विवाद बहुत पुराना है। विवाद से क्या नुकसान होता है, यह समझने के लिए भारतीयों को विशेष बुद्धि लगाने की जरूरत नहीं है। सारा इतिहास इसी से भरा पड़ा है। चोल राजाओं ने भी इसे समझा ही होगा। वैसे भी उत्तर भारत की खबरें विंध्यांचल पार कर उनके पास पहुंचती होंगी, उसका श्रेष्ठ समाधान निकाला। विष्णु और शिव एक ही परिसर में निवास करें। शिव की जय, विष्णु की जय।

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