दावानल से दूषित होता पर्यावरण

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

राज्य सरकार ने मार्च महीने में जंगलों को आग से बचाने के लिए जागरूकता अभियान की शुरुआत भी की थी, मगर धरातल पर वनों की आग ने सारे दावे खोखले साबित कर दिए। आलम यह है कि इस भयंकर आग पर काबू पाना वन विभाग के साथ-साथ स्थानीय लोगों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध हुआ है…

हर वर्ष पांच जून का दिन वैश्विक स्तर पर पर्यावरण दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इसके अलावा पर्यावरण से संबंधित 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ भी मनाया जाता है, जिसका मकसद भी यही है। इन दोनों अवसरों पर दुनिया के लगभग सभी देशों द्वारा पर्यावरण से संबंधित गतिविधियों के बारे में कई आयोजन होते हैं। पर्यावरण के इन आयोजनों में करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद सभी देश अपने भाषणों में पर्यावरण संवर्धन के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं और प्रकृति संरक्षण की प्रतिबद्धता का संकल्प जरूर लेते हैं। यदि सच कहा जाए, तो इन दोनों अवसरों पर केवल औपचारिकताओं के लिए आयोजन होते हैं, क्योंकि जमीनी स्तर पर कोई भी देश पर्यावरण की रक्षा के प्रति संवेदनशील नहीं है। विश्व में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश अमरीका ने 1997 के पर्यावरण संबंधी ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ की संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था, वहीं 2015 के पैरिस जलवायु समझौते से भी अमरीका ने अपने आपको बाकी देशों से अलग कर लिया।

प्राचीनकाल से भारतीय मूलदर्शन, परंपराओं और जीवनशैली में पर्यावरण संरक्षण को विशेष महत्त्व दिया गया है। पीपल और बरगद जैसे पेड़ों को प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति में देव तुल्य माना गया है। पीपल के पेड़ से ऑक्सीजन का ज्यादा मात्रा में उत्सर्जन होने के कारण इसका वैज्ञानिक महत्त्व भी है। इसलिए भारत में इन पेड़ों को आज भी पूज्य व धार्मिक आस्था का केंद्र माना जाता है। इन सभी चीजों का संबंध हिमाचल की प्राचीन संस्कृति से भी जुड़ा है, मगर दुर्भाग्य से कुछ दिन पूर्व वनों में आग के तांडव ने जो विकराल रूप धारण कर रखा था, यह पर्यावरण के लिए चिंताजनक पहलू है। देवभूमि का कुल वन क्षेत्र 37033 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें चीड़ के पेड़ सबसे ज्यादा संख्या में हैं, जिनकी पत्तियां जल्दी आग पकड़ती हैं। राज्य सरकार द्वारा मार्च महीने में जंगलों को आग से बचाने के लिए जागरूकता अभियान की शुरुआत भी की थी, मगर धरातल पर वनों की आग ने सारे दावे खोखले साबित कर दिए। आलम यह है कि इस भयंकर आग पर काबू पाना वन विभाग के साथ-साथ स्थानीय लोगों के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ है। इस आग की चपेट से लोगों के घर और मवेशीखाने भी जलकर राख हो गए।

संसाधनों की कमी के कारण इस पर कोई विराम नहीं लग पाया। जीवन संपदा जलकर राख हो गई, इसका आकलन तो हो ही नहीं सकता है। वहीं कई दुर्लभ वन्य जीव प्रजातियां भी बेमौत इस आग की बलि चढ़ गईं। ऐसे में जो जानवर बच जाते हैं, मजबूर होकर शहरों या कस्बों की तरफ पलायन कर लेते हैं। भारत में विश्व की लगभग 6.5 प्रतिशत जानवरों की प्रजातियां और सात प्रतिशत वनस्पति की प्रजातियां मौजूद हैं, जिनमें से कई प्रजातियां इसी दावानल के कारण लुप्त हो चुकी हैं। भारत की पुरातन चिकित्सा पद्धति के अनुसार सभी पेड़ों में औषधीय गुण विद्यमान हैं। वनों में आग लगाने जैसे खतरनाक कृत्यों को मानवीय हस्तक्षेप द्वारा ही अंजाम दिया जा रहा है, जो पर्यावरण की रक्षा के प्रति हमारे स्वार्थी व्यवहार को दर्शाता है। बावजूद इसके वन अधिनियम 1927 के अनुसार वनों में आग लगाना जुर्म है। इस समस्या से निपटने में सरकारों की योजनाओं और विभागों की कार्यशैली पर प्रश्न उठ रहे हैं। जंगलों की आग के धुएं से पर्यावरण दूषित हो रहा है। तापमान में लगातार वृद्धि होने के कारण ‘ग्लोबल वार्मिंग’ एक प्रचंड ज्वलंत मुद्दे में परिवर्तित हो रहा है, जिस कारण ग्लेशियरों का पिघलना लगातार जारी है। कई सालों से चली आ रही वनों की आग की इस समस्या से निपटने के लिए कोई आधुनिक तकनीक या सकारात्मक कदम नहीं उठाए गए हैं। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वन आवश्यक हैं, जो सिकुड़कर लगभग 23 प्रतिशत से भी कम हो चुके हैं। इसका कारण वनों में आग, वन माफिया द्वारा अवैध कटान, बढ़ रहा शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के विस्तार के लिए विकास के नशे में आकर वनों को अंधाधुंध काटकर पर्यावरण का विध्वंस किया जा रहा है।

फोरलेन जैसे निर्माण कार्यों के लिए दशकों पुराने पेड़ों की बलि देकर जिस विकास की उपलब्धियों को गिनाया जा रहा है, वास्तव में अनियंत्रित होते इस विकास के साथ काफी हद तक प्रकृति के विनाश को भी अंजाम दिया जा रहा है। आखिर इन कटते पेड़ों के नुकसान को कब समझा जाएगा? इन गतिविधियों ने वातावरण को खतरे में डाल दिया है। विकास पर्यावरण की परिधि में रहकर ही होना चाहिए, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करके किए गए विकास का कोई औचित्य नहीं है। देश में एनजीटी ने कई सालों से धान की पराली व गेहूं के अवशेष जलाने पर रोक लगा रखी है, जिस पर कोई अमल नहीं हुआ है। डंपिंग साइट पर कूड़े के ढेरों को आग के हवाले करने से प्रदूषण में भी वृद्धि हो रही है, जिसके लिए देश की शीर्ष अदालतों को हस्तक्षेप करना पड़ता है। हाल ही में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने पहली मई, 2018 की जेनेवा में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की, जिसमें 14 नाम अकेले भारत के शहरों के हैं, जिनमें कानपुर शीर्ष पर है। इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि हम प्रदूषित होते वातावरण के प्रति कितने गंभीर हैं। पर्यावरण को बचाने के लिए वन संपदा को बचाना अत्यंत जरूरी है।