पहाड़ होने का हक

हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने पुनः पहाड़ होने का हक केंद्र से मांगा है, तो यह उस पानी की अस्मिता है, जिसे अपने सीने से देश को समर्पित करने की सौगंध पर्वतीय प्रदेश खाता है। राष्ट्रीय प्रगति के नगाड़ों के बीच किसी पहाड़ी नदी के किनारों से पूछें कि लगातार बहते पानी को अपने आंचल में समाने का यथार्थ क्या होता है। इसी यथार्थ पर टिकी मुख्यमंत्री की मांग अगर विद्युत उत्पादन पर रायल्टी मांग रही है, तो यह नदी के बहने की शर्त है। प्राकृतिक संसाधनों पर राज्यों को अधिकार सौंपते केंद्र ने पानी को अलग रखा है, इसलिए हिमाचल के साथ यह अन्याय की तरह है। यह दर्द उस समय और भी बढ़ जाता है, जब सामने छाती पर चिने हुए पौंग व भाखड़ा बांध नजर आते हैं। प्राकृतिक संसाधनों की ऐसी बाड़बंदी और क्या होगी कि पानी तो राष्ट्र के नाम, लेकिन प्राकृतिक त्रासदी के साथ जीने-मरने के लिए हिमाचल अकेला होता है। सतलुज बाढ़ ने यही प्रमाणित किया और अब भी बरसाती मौसम में उफनती नदियों के तट पर मातमी नजारा हमेशा की तरह हिमाचली आगोश में बैठा दिया जाता है। बारिश का पानी नदी में पहुंचने से पहले कहर की जुबान से हिमाचल को संबोधित करता है और फिर वजूद पर खरौंचे छोड़ता हुआ निकल जाता है। रविवार की रात का कहर जब मनाली के करीब बादल से लिपट कर आता है, तो पागल नदी आसपास की प्रगति को नोचती हुई निकल जाती है। बिलिंग की पर्यटन गतिविधियों को सूली पर टांग कर पानी वाया पौंग राजस्थान की ओर भाग जाता है। यह वही पौंग है, जहां पुरखों की जमीन नहीं विरासत को मौत के घाट सुलाकर बीबीएमबी नामक शाहूकार पैदा हुआ और इसके साथ कानून के जल्लाद और नियमों के हुक्मरान पहरे पर बैठे हैं। शिमला के कुफरी से कोई भी बयान दागना केंद्रीय ऊर्जा राज्य मंत्री आरके सिंह के लिए इसलिए आसान रहा होगा, क्योंकि वहां विस्थापन की चीखें नहीं सुनाई दीं। वहां तो ऊर्जा सम्मेलन की शेखियां और विद्युतीकरण के लक्ष्यों की खुशामद में सारा तामझाम रहा होगा। सारे देश को रोशनी देते बांधों की झुलसा देने वाली बालू से पूछें कि उसके ऊपर विस्थापन की परछाइयां कितनी असहनीय पीड़ा देती हैं। पौंग-भाखड़ा बांधों से पैदा होते हर बिजली के यूनिट से पता करें कि इसके पीछे मानवीय त्रासदी की लागत क्या है। आश्चर्य यह कि वर्षों बाद भी बीबीएमबी की न्यायपूर्ण हिस्सेदारी व लेनदारी पर केंद्रीय ऊर्जा राज्यमंत्री का टका सा जवाब हमें इंतजार के गर्त से निकालने के बजाय उसी में धकेलने का संदेश दे रहा है। हमारे संयम, सहनशीलता व स्वाभिमान की राष्ट्रीय व्याख्या अगर नरक समान है, तो वीरभूमि का खून खौलता क्यों नहीं। क्या सरहद पर देश की पैमाइश कभी नहीं हुई। उस खून की हिफाजत कभी नहीं होगी, जो देश के नाम पर सरहद पर माथा टेकता है या रेगिस्तान के लिए पर्वत का सिर झुका देता है। हम हिमाचली शालीन हैं और रहेंगे। हर काम देश के नाम से करेंगे, लेकिन इतने कायर नहीं हो सकते कि केंद्र हमें ही पंजाब, राजस्थान और हरियाणा की शर्तें सुनाकर प्रताडि़त करे। क्या हमारे लोकतांत्रिक अधिकार केवल बड़े बांधों में डूबना ही सिखाएंगे या मतदान की कसौटियों में केंद्रीय सरकारों की बनावट में खुद को उजाड़ना है। यह प्रदेश सरकारों के अलावा जनता की ओर से दिखाई गई संवेदनहीनता का नतीजा है कि विस्थापन के ताप को हमने एक समूह की समस्या मान लिया। विस्थापन बेशक विकास की शर्त है और इसे अंगीकार करके देश का निर्माण होगा, लेकिन इस मसले का मानवीय पहलू ही नजरअंदाज हो तो कहीं न कहीं यह अस्तित्व, इतिहास और संस्कृति का विषय भी है। देहरा के विधायक होशियार सिंह ने मुंडन करवाकर जो प्रतीकात्मक आंदोलन शुरू किया है, उसकी गूंज कुफरी संगोष्ठी से होते हुए दिल्ली तक पहुंचनी चाहिए, ताकि पता चले कि विस्थापित परिवार किस तरह अपने गुस्से को सीने में दबाकर, वक्त की कठोरता और अन्याय से दब रहे हैं। बेशक मुख्यमंत्री ने राज्य की मांग को समवेत स्वर में रखा, लेकिन इसके साथ केंद्र के कानों में पड़ी रूई हटाने का मनोबल भी चाहिए। बिजली उत्पादन केवल एकतरफा लक्ष्य नहीं हो सकता और न ही यह विकास का एकमात्र गुलदस्ता है, बल्कि पानी और विस्थापित परिवारों की ऐसी कहानी भी है, जिसे बार-बार अनसुना किया जा रहा है।