मानवीय मूल्यों के हिमायती थे भीष्म साहनी

भीष्म साहनी (जन्म-8 अगस्त, 1915, रावलपिंडी, मृत्यु-11 जुलाई, 2003, दिल्ली) प्रसिद्ध भारतीय लेखक थे। उन्हें हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वह आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। भीष्म साहनी मानवीय मूल्यों के सदैव हिमायती रहे। वामपंथी विचारधारा से जुड़े होने के साथ-साथ वह मानवीय मूल्यों को कभी आंखों से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाता है, लेकिन अपनी सहृदयता के लिए भी वह चिरस्मरणीय हैं। भीष्म साहनी ने कई प्रसिद्ध रचनाएं की थीं, जिनमें से उनके उपन्यास तमस पर वर्ष 1986 में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था। उन्हें कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए थे। 1998 में भारत सरकार के पद्म भूषण अलंकरण से भी वह विभूषित किए गए थे।

जन्म तथा परिवार

भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, सन् 1915 में अविभाजित भारत के रावलपिंडी में हुआ था। उनके पिता का नाम हरबंस लाल साहनी तथा माता लक्ष्मी देवी थीं। उनके पिता अपने समय के प्रसिद्ध समाजसेवी थे। हिंदी फिल्मों के ख्यातिप्राप्त अभिनेता बलराज साहनी, भीष्म साहनी के बड़े भाई थे। पिता के समाजसेवी व्यक्तित्व का इन पर काफी प्रभाव था। भीष्म साहनी का विवाह शीला जी के साथ हुआ था।

शिक्षा

भीष्म साहनी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हिंदी व संस्कृत में हुई। उन्होंने स्कूल में उर्दू व अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1937 में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया और फिर 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

कार्यक्षेत्र

देश के विभाजन से पहले भीष्म साहनी ने व्यापार भी किया और इसके साथ ही वह अध्यापन का भी काम करते रहे। तदनंतर उन्होंने पत्रकारिता एवं इप्टा नामक मंडली में अभिनय का कार्य किया। साहनी जी फिल्म जगत् में भाग्य आजमाने के लिए बंबई आ गए, जहां काम न मिलने के कारण उनको बेकारी का जीवन व्यतीत करना पड़ा। उन्होंने वापस आकर पुनः अंबाला के एक कॉलेज में अध्यापन के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थायी रूप से कार्य किया। इस बीच उन्होंने लगभग 1957 से 1963 तक विदेशी भाषा प्रकाशन गृह मास्को में अनुवादक के रूप में बिताए। यहां भीष्म साहनी ने दो दर्जन के करीब रशियन भाषायी किताबों, जैसे टालस्टॉय, ऑस्ट्रोव्स्की व औतमाटोव की किताबों का हिंदी में रूपांतरण किया। उन्होंने 1965 से 1967 तक ‘नई कहानियां’ का संपादन किया। साथ ही वह प्रगतिशील लेखक संघ तथा अफ्रो-एशियाई लेखक संघ से संबद्ध रहे। वह 1993 से 1997 तक साहित्य अकादमी एक्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य भी रहे।

गद्य लेखन

भीष्म साहनी का गद्य एक ऐसे गद्य का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत करता है, जो जीवन के गद्य का एक खास रंग और चमक लिए हुए है। उसकी शक्ति के स्रोत काव्य के उपकरणों से अधिक जीवन की जड़ों तक उनकी गहरी पहुंच है। भीष्म जी को कहीं भी भाषा को गढ़ने की जरूरत नहीं होती। सुडौल और खूब पक्की ईंट की खनक ही उनके गद्य की एकमात्र पहचान है। जहां तक प्रगतिवादी कथा आंदोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है तो इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नहीं है। हिंदी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। मार्क्सवाद ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था। इसी मार्क्सवादी चिंतन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन-जन तक पहुंचाने वालों में एक नाम भीष्म साहनी का भी है। स्वातंत्र्योत्तर लेखकों की भांति भीष्म साहनी सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अंतर्द्वंद्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। जनवादी चेतना के लेखक व उनकी लेखकीय संवेदना का आधार जनता की पीड़ा है। जनसामान्य के प्रति समर्पित उनका लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर अवलंबित है।

कृतियां

कहानी संग्रह : भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, निशाचर, अहं ब्रह्मास्मि, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत

उपन्यास संग्रह : झरोखे, कडि़यां, तमस, बसंती, मायादास की माड़ी, कुंतो, नीलू निलीमा निलोफर

नाटक संग्रह : हानूस, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी, गुलेल का खेल

भाषा-शैली

भीष्म साहनी हिंदी और अंग्रेजी के अलावा उर्दू, संस्कृत, रूसी और पंजाबी भाषाओं के अच्छे जानकार थे। भीष्म साहनी एक ऐसे साहित्यकार थे, जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वान करते थे। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करुणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है। भीष्म साहनी ने साधारण एवं व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग कर अपनी रचनाओं को जनमानस के निकट पहुंचा दिया।

विचारधारा

भीष्म साहनी को प्रेमचंद की परंपरा का लेखक माना जाता है। उनकी कहानियां सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने पूरी जीवंतता और गतिमयता के साथ खुली और फैली हुई जिंदगी को अंकित किया है। साहनी जी मानवीय मूल्यों के बड़े हिमायती थे, उन्होंने विचारधारा को अपने साहित्य पर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ वह मानवीय मूल्यों को कभी ओझल नहीं होने देते थे। इस बात का उदाहरण उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’ से लिया जा सकता है।

मार्क्सवाद से प्रभावित

मार्क्सवाद से प्रभावित होने के कारण भीष्म साहनी समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणामों को बड़ी गंभीरता से अनुभव करते थे। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत वह जन सामान्य के बहुआयामी शोषण को सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे। बसंती, झरोखे, तमस, मय्यादास की माड़ी व कडि़यां उपन्यासों में उन्होंने आर्थिक विषमता और उसके दुःखद परिणामों को बड़ी मार्मिकता से उद्घाटित किया है, जो समाज के स्वार्थी कुचक्र का परिणाम है और इन दुखद स्थितियों के लिए दोषपूर्ण समाज व्यवस्था उत्तरदायी है।

स्वतंत्र व्यक्तित्व

स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म साहनी गहन मानवीय संवेदना के सशक्त हस्ताक्षर थे। उन्होंने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया है। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी।

सम्मान और पुरस्कार

भीष्म साहनी को उनकी तमस नामक कृति पर साहित्य अकादमी पुरस्कार (1975) से सम्मानित किया गया था। उन्हें शिरोमणि लेखक सम्मान (पंजाब सरकार) (1975), लोटस पुरस्कार (अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन की ओर से 1970), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1983) और पद्म भूषण (1998) से सम्मानित किया गया था।

मृत्यु : प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लेखक भीष्म साहनी का निधन 11 जुलाई, 2003 को दिल्ली में हुआ।