मानसून सत्र न जाए बेकार

राजेश कुमार चौहान

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि लोकसभा की पहली कार्यवाही 13 मई 1952 को हुई थी। इसमें लोकसभा की लगभग 677 बैठकें हुई थीं, जिसमें हो-हल्ला नहीं, बल्कि देशहित और जनहित के बारे में सोचा गया था, लेकिन आज संसद का नजारा ही बदल चुका है। आज संसद में बेवजह का हो-हल्ला ज्यादा और काम कम होता है। संसद का मानसून सत्र आज 18 जुलाई से आरंभ हो रहा है। अकसर देखा और सुना जाता है कि जब भी संसद का कोई सत्र शुरू होता है, तो संसद में बैठे लोग बेकार की बातों, बयानबाजियों और आरोप-प्रत्यारोप लगाकर बहुत समय बर्बाद कर देते हैं। इसे देखकर तो यह भी लगता है कि यह कोई संसद की कार्यवाही नहीं चल रही है, बल्कि संसद में राजनीति का अखाड़ा बन गया है। कई बार तो एक दिन क्या, कई-कई दिनों तक एक ही मुद्दे पर बहस चलती रहती है, लेकिन उसका कोई भी नतीजा सामने नहीं आता है। यहां तक कि कई बार संसद का पूरा सत्र किसी एक मुद्दे की ही भेंट चढ़ जाता है। देश का आमजन वोट का प्रयोग करके सांसदों को लोकतंत्र के मंदिर संसद तक क्यों भेजता है? क्या सांसदों को आमजन के खून-पसीने की कमाई, जो विभिन्न टैक्सों के रूप में आमजन से इकट्ठा करके इन्हें वेतन के रूप में मिलते हैं, की जरा भी परवाह नहीं होती? आखिर संसद किसलिए है? ऐसे ही अनगिनत सवाल देश के आमजन के दिल-दिमाग में तब उठते हैं, जब संसद का सत्र सांसदों की बेतुकी बयानबाजी की भेंट चढ़ जाता है। अगर संसद के सत्र ऐसे ही हंगामे की भेंट चढ़ते रहे, तो संसद में देशहित और जनहित के लिए फैसले कैसे लिए जा सकेंगे? क्या ऐसे होगा देश का विकास? सांसदों को संसद की मर्यादा का ख्याल रखते हुए पहले तोलना, फिर बोलना चाहिए, ताकि संसद में बिना वजह का कोई हंगामा न हो। सांसदों को चाहिए कि वे संसद की गरिमा को बनाए रखने के लिए और देशहित, जनहित के लिए ज्यादा से ज्यादा कामों को हरी झंडी देने के लिए एकजुट होकर संसद के सत्रों को उपयोगी बनाएं।