सिर्फ ‘मोदी हटाओ’ गठबंधन

प्रधानमंत्री मोदी ने एक साक्षात्कार के जरिए कांग्रेस, राहुल गांधी, विपक्षी एकता और उनके सिर्फ ‘मोदी हटाओ’ एजेंडे पर पहली बार आक्रामक वार किया है। अभी तक यह काम आलोचक और विश्लेषक कर रहे थे कि कथित महागठबंधन का स्वरूप और मकसद क्या है, लेकिन अब प्रधानमंत्री ने देश के सामने एक हकीकत पेश करने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री विपक्षियों और उनके गठबंधन के प्रयासों को देशहित में नहीं मानते और खासकर कांग्रेस मोदी को सत्ता से हटाने को ही देशहित मानती है। प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि सिर्फ ‘मोदी हटाओ’ के अलावा विपक्ष के पास कोई एजेंडा, मुद्दा और कार्यक्रम नहीं है। विपक्ष में बिखराव और विरोधाभास हैं। वे एकजुट हो ही नहीं सकते। कांग्रेस को प्रधानमंत्री ने एक क्षेत्रीय पार्टी करार दिया है। यह काफी हद तक यथार्थ भी है। पहली बार है कि दिल्ली, आंध्रप्रदेश और सिक्किम राज्यों की विधानसभाओं में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। कांग्रेस की सत्ता पंजाब, पुडुचेरी, मिजोरम तक सिमट कर रह गई है। मिजोरम में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार गठबंधन का तुलनात्मक विश्लेषण भी किया और 1977, 1989 की तुलना में 2019 के कथित महागठबंधन को बेमानी बताया। साफ भी है, क्योंकि 1977 में जनता पार्टी की सरकार, इंदिरा गांधी सरकार के तानाशाही और अमानवीय आपातकाल के बाद, देश ने चुनी थी। उस सरकार में वामपंथियों और मुस्लिम लीग के साथ जनसंघ भी शामिल था। जनसंघ ने तो जनता पार्टी में ही विलय किया था। वह गठबंधन का अद्भुत प्रयोग था, बेशक उसकी सरकार पूरे पांच साल नहीं चल पाई। 1989 का चुनाव बोफोर्स तोप सौदे में घूस के भ्रष्ट मुद्दे पर हुआ था। हालांकि कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को न तो बहुमत और न ही सर्वाधिक सीटों का जनादेश हासिल हुआ था, लेकिन तब भी वाममोर्चा और भाजपा ने वीपी सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दिया था। दरअसल वे परिवर्तन और वैकल्पिक व्यवस्था के चुनाव थे। तब नारा ‘राजीव गांधी हटाओ’ नहीं था, बल्कि बोफोर्स का सच बाहर लाने का राजनीतिक अभियान था। यह दीगर है कि राजीव गांधी की हत्या कर दी गई और ‘राजा नहीं, फकीर है’ कहे जाने वाले वीपी सिंह का भी निधन हो चुका है, लेकिन गठबंधन के ये दो उदाहरण हमेशा बरकरार रहेंगे। अब 2019 के आम चुनाव का मुद्दा है-‘मोदी हटाओ’! सवाल है कि सियासत इतनी व्यक्तिवादी क्यों है? मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनेंगे या परास्त होंगे, यह निष्कर्ष इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि 134 करोड़ की आबादी (करीब 90 करोड़ मतदाता) को वैकल्पिक सत्ता के मद्देनजर कार्यक्रम और योजनाओं का खुलासा करना। राजनीति की मौजूदा स्थिति प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा-एनडीए के अनुकूल है। यदि भाजपा ‘मोदी बनाम राहुल’ और ‘स्थिरता-विकास’ सरीखे मुद्दों पर चुनाव में उतरती है, तो सियासी फायदा भाजपा-एनडीए को हो सकता है! कारण स्पष्ट है। विपक्ष में ही शरद पवार सरीखे कद्दावर नेता का मानना है कि गठबंधन व्यावहारिक नहीं है, गठबंधन हो ही नहीं सकता। उनके अलावा, पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा भी मानते हैं कि छोटी, क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लिहाजा भाजपा-कांग्रेस को छोड़कर ऐसी पार्टियों का मोर्चा यथाशीघ्र बनाया जाना चाहिए। ऐसे मोर्चे की कोशिश में ममता बनर्जी और चंद्रशेखर राव जुटे हुए हैं। वे कांग्रेस से अलग गठबंधन या मोर्चे के पक्षधर हैं। यदि ‘तिनके’ अलग-अलग और बिखरे हुए रहेंगे, तो ‘घोंसला’ कैसे बनेगा? लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का एक स्पष्टीकरण समझ के परे रहा। उन्होंने कहा कि रोजगार के आंकड़े जमा करने का कोई पैमाना नहीं है। सवाल है कि पैमाना हो क्यों नहीं सकता? प्रधानमंत्री देश के हैं। उनकी सरकार विभिन्न राज्यों से रोजगार के आंकड़े मंगवा सकती है। देश के 20 राज्यों में भाजपा-एनडीए की सरकारें हैं। कमोबेश वे रोजगार के सरकारी आंकड़े तो मुहैया करा ही सकते हैं। उसके बाद, केंद्र सरकार के जिन मंत्रालयों के तहत रोजगार के अवसर बहुत ज्यादा पैदा होते रहते हैं, उनके भी सालाना आंकड़े इकट्ठा करना कोई मुश्किल काम नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह कहते हैं कि करीब 3 लाख नए उद्योग गांवों के स्तर पर काम कर रहे हैं, बीते एक साल में करीब 48 लाख कारोबारों ने रजिस्ट्रेशन करवाए हैं, करीब 15000 स्टार्ट अप काम कर रहे हैं, उसी तरह यह अनुमानित आंकड़ा भी उनकी सरकार दे सकती है कि आखिर चार सालों में कितना रोजगार मुहैया कराया गया? इसके अलावा, विपक्षी नेता जिन मुद्दों के राग अलापते रहते हैं, उन पर वे ही अंततः चित होंगे, आने वाले कुछ दिनों की प्रतीक्षा कर ली जाए, लेकिन ‘मोदी हटाओ’ मुहिम भी देशहित में नहीं है, यह विपक्ष को हमारी चेतावनी है।