अटल बिहारी वाजपेयी का चले जाना

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने एक बार जनसंघ और समाजवादी परंपरा के लोगों को साथ लेकर गैर कांग्रेसी सत्ता अधिष्ठान निर्माण करने का प्रयास किया था। दोनों का यह सपना पूरा नहीं हो सका। उपाध्याय की तो हत्या हो गई और राम मनोहर लोहिया के शिष्य ही उनके मार्ग से भटकने लगे, लेकिन यह सपना अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरा कर दिया। वाजपेयी ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी। भारत को भी परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाना है, इसका नीतिगत निर्णय करने का साहस वाजपेयी ही दिखा सके…

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी इहलीला समाप्त कर गोलोकवासी हो गए। वाजपेयी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। जब डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की, तो उस समय के सरसंघचालक गोलवलकर ने कुछ प्रचारक जनसंघ का कारेय करने के लिए दिए, उनमें वाजपेयी भी एक थे। वाजपेयी के बारे में तब डा. मुखर्जी ने कहा था कि यदि मुझे वाजपेयी जैसे तीन लोग मिल जाएं, तो मैं देश का भाग्य बदल दूं। उस समय किसी ने सोचा नहीं था कि यही वाजपेयी एक दिन भारत के प्रथम गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बनेंगे। वैसे तो वाजपेयी से पहले मोरारजी भाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री रह चुके थे, लेकिन ये सभी कांग्रेस की वंश परंपरा के ही लोग थे, जो पार्टी की भीतरी फूट के चलते पार्टी से बाहर हुए थे। उस लिहाज से यह वाजपेयी ही थे, जो कांग्रेस की वैचारिक परंपरा के बाहर के आदमी थे।

राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने एक बार जनसंघ और समाजवादी परंपरा के लोगों को साथ लेकर गैर कांग्रेसी सत्ता अधिष्ठान निर्माण करने का प्रयास किया था। दोनों का यह सपना पूरा नहीं हो सका। उपाध्याय की तो हत्या हो गई और राम मनोहर लोहिया के शिष्य ही उनके मार्ग से भटकने लगे, लेकिन यह सपना अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरा कर दिया। ध्यान रखना होगा कि वाजपेयी ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी। परमाणु बम बनाने की क्षमता का निर्माण तो लंबे समय से चल रही नीति के चलते ही हुआ होगा, लेकिन भारत को भी परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाना है, इसका नीतिगत निर्णय करने का साहस वाजपेयी ही दिखा सके। अमरीका की तमाम खुफिया एजेंसियां, जो दुनिया के हर घास-पत्ते पर भी गिद्ध दृष्टि जमाए रखती हैं, वे भी पोखरण को देख न सकीं। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय भाषा में  बोलने वाले वे प्रथम भारतीय विदेशमंत्री थे।

यह अटल बिहारी वाजपेयी का ही कमाल था कि वह चौबीस पार्टियों के गठबंधन को साथ लेकर सफलतापूर्वक चल सके। जब गठबंधन के किसी भागीदार ने अपने संकुचित दागती हितों के लिए वाजपेयी की सरकार को धोखा दिया, तो वाजपेयी तुरंत जनता के दरबार में गए। जनता का विश्वास सदा वाजपेयी पर ही बना रहा। हर बार वह और भी सशक्त होकर निकले। मई 1996 में वह मात्र सोलह दिन के लिए प्रधानमंत्री बने। देशी-विदेशी शक्तियां सहम गईं कि राष्ट्रवादी अखाड़े का सिंह भारत की राजनीति के केंद्र में आ गया है। अभी तक देश ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों से विरासत में मिली नीतियों को ही ढो रहा था।

कांग्रेस या कांग्रेस के भीतर से ही निकले लोग गैर कांग्रेसवाद की तख्ती लगाकर सत्ता संभालते रहे,  तो ब्रिटिश शासकों से विरासत में मिली नीतियां चलती रहेंगी, इसी ध्येय के चलते वाजपेयी को हटाकर कभी देवेगौड़ा और कभी गुजराल के नाम पर प्रयोग किए गए, लेकिन यह दरबारी नीति ज्यादा देर न चल सकती थी और न ही चली। जनता ने निर्णय फिर वाजपेयी के पक्ष में ही किया। वाजपेयी के कार्यकाल की सबसे बड़ी योजना सारे देश को राष्ट्रीय राजमार्ग के माध्यम से जोड़ना था। यह योजना ‘चतुर्भुज स्वर्णिम योजना’ कहलाई। सारे देश की नदियों को जोड़कर उन्होंने जल समस्या का समाधान करने की भी कोशिश की, ताकि नदियों का पानी व्यर्थ न जाकर देश की समृद्धि के लिए प्रयोग किया जा सके। वाजपेयी की सबसे बड़ी खूबी थी कि वह विचार भिन्नता को मन भिन्नता नहीं बनने देते थे। राष्ट्रीय हितों को वह सदा दलीय हितों से वरीयता देते थे। यही कारण है कि नरसिम्हा राव ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का पक्ष रखने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था। वे संवाद में विश्वास करते थे, टकराव में नहीं।

उन्होंने पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की भी भरसक कोशिश की, यह अलग बात है कि पाकिस्तानी सेना ने उनके इन प्रयासों को सिरे नहीं चढ़ने दिया। 1996 में अटल जी ने राष्ट्रवादी ताकतों का एक छोटा सा अखाड़ा भारत की राजनीति में स्थापित कर दिया था। वही अखाड़ा विस्तृत होकर 2014 में आते-आते देश की राजनीति में राष्ट्रीयता के प्राण संचार करने लगा।

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