आत्म पुराण

समाधान-हे मैत्रेयी! जो वचन किसी अर्थ का बोधक न हो और उसकी प्रमाणिकता सिद्ध न हो तो उससे हमारी कुछ हानि नहीं, क्योंकि जो वचन किसी अर्थ का बोधक होता है, उसी को हम प्रमाण स्वरूप मानते हैं। अबोध वचन को हम प्रमाण नहीं मान सकते।

हे मैत्रेयी! अब हम वेद के स्वरूप का निरूपण करते हैं, क्योंकि वेद के भी दो भाग हैं। एक तो मंत्र रूप वेद है और दूसरा ब्राह्मण रूप वेद है। प्रथम मंत्र रूप वेद के चार विभाग हैं-ऋग, यजुष, साम, अथवण। दूसरे ब्राह्मण रूप वेद के आठ विभाग हैं-1. इतिहास, 2. पुराण, 3. विद्या, 4. उपनिषद, 5. श्लोक, 6. सूत्र, 7. व्याख्यान, 8. अनु-व्याख्यान। इनका विवरण इस प्रकार है-1. जो वेद के वचन जनक आदि राजाओं के कथा प्रसंग को बतलाते हैं, के इतिहास हैं।

2.जो वेद वचन माया विशिष्ट परमात्मा से जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय, ऋषियों के वंश, स्वयुभुव मुनि की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। साथ ही चारों वर्ण और चारों आश्रमों का कथन करते हैं। वे पुराण हैं।

3.जो वेद वचन ब्रह्मा आदि सब देवताओं की उपासना को बतलाते हैं, उनका नाम विद्या है। 4. जो वेद वचन सत्य का भी सत्य ब्रह्म के रहस्यों को कथन करते हैं वे उपनिषद हैं। 5. वेद के ब्रह्मास भाग में जो मंत्र दिए गए हैं, वे श्लोक हैं। 6. जो संक्षेप रूप में अनेक अर्थों का कथन करते हैं, वे सूत्र हैं। 7. मंत्रों के अर्थ को समझाने वाला जो ब्राह्मण रूप वेद भाग हैं, उसका नाम व्याख्यान है। 8. जो वेद वचन सूत्र अर्थ को, मंत्र के अर्थ को विस्तार से कथन करते हैं उनको अनुव्याख्यान कहा जाता है।

शंका- हे भगवन! आपने जो कहा कि सूत्र अनेक अर्थ को प्रकट करता है यह संभव नहीं जान पड़ता, क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि एक बार उच्चारण किया शब्द एक अर्थ का बोधक होता है।

समाधान- हे मैत्रेयी! जैसे लौकिक वाक्यों में पुनः-पुनः आवृति करके अनेक अर्थों की बोधकता दूषण रूप मानी गई है, वैसा नियम वेदों के सूत्रों के विषय में नहीं है। जैसे भूमि रूपी क्षेत्र से वृक्ष की उत्पत्ति होती है, वैसे ही ब्रह्म रूप क्षेत्र में वेद रूपी कल्पवृक्ष उत्पन्न होता है। वह कल्पवृक्ष ऋग-यज-साम-अथर्वण इन चारों स्कंधों से युक्त है। वेद भगवान की ब्रह्म से उत्पत्ति होने के कारण ही शास्त्रों ने उन्हें ब्रह्मतुल्य कथन किया है। हे मैत्रेयी! उस माया विशिष्ट ब्रह्म से जिस प्रकार वेद उत्पन्न हुआ वैसे ही इनके अर्थ में उसी से उत्पन्न हुए हैं।

अब संक्षेप में उनका निरूपण किया जाता है। ज्ञान, योग, कर्म योग तथा यज्ञ भूमि से बाहर करने योग्य दान, लोक-परलोक में जीवों को प्राप्त होने के उपयुक्त सुख-दुख और उनको भोगने योग्य स्थावर और जंगम शरीर आकाशादि पंचभूत वाक आदि एकादश इंद्रियां, पंच प्राण आदि सब उसी परमात्मादेव से उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सृष्टि से पूर्व ब्रह्म का अद्वितीय रूप सिद्ध किया गया है। हे मैत्रेयी! अब तू प्रलय काल में ही ब्रह्म की अद्वितीय रूपता को समझ। जैसे श्रीगङ्गाजी आदि नदियों का जल है, और जो बादलों में स्थित जल है, वह संपूर्ण जल प्रत्यक्ष रूप में अथवा परंपरा संबंध से महान समुद्र को ही प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रलयकाल में यह संपूर्ण स्थावर-जंगम रूप जगत साक्षात रूप से अथवा परंपरा संबंध से परमात्मादेव में ही लय होता है। हे मैत्रेयी! जैसे जगत में छोटी नदियों का जल पहले श्रीगङ्गाजी आदि महान नदियों को प्राप्त होकर उनके साथ महान समुद्र में पहुंच जाता है।