आध्यात्मिक ज्ञान

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…      ये तो धर्म के हीनतम रूप हैं, कर्म के निम्नतम रूप हैं। यदि मनुष्य शारीरिक वासनाओं की पूर्ति में ही अपनी समस्त मानसिक शक्ति खर्च कर दे, तो तुम भला बताओ उसमें और पशु में अंतर ही क्या है? भक्ति एक उच्चतर वस्तु है, स्वर्ग की कामना से भी ऊंची। स्वर्ग का अर्थ असल में है क्या? तीव्रतम भोग का एक स्थान। वह ईश्वर कैसे हो सकती है? केवल मूर्ख ही इंद्रिय सुखों के पीछे दौड़ते हैं। इंद्रियों में रहना सरल है, खाते-पीते और मौज उड़ाते हुए पुराने ढर्रे में चलते रहना सरल है, किंतु आजकल के दार्शनिक तुम्हें जो बतलाना चाहते हैं, वह यह है मौज उड़ाओ, किंतु उस पर केवल धर्म की छापा लगा दो। इस प्रकार का सिद्धांत बड़ा खतरनाक है। इंद्रियों में ही मृत्यु है। आत्मा के स्तर पर जीवन ही सच्च जीवन है, अन्य सब स्तरों का जीवन मृत्युस्वरूप है। यह संपूर्ण जीवन एक व्यायाम शाला है। यदि हम सच्चे जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, तो हमें इस जीवन के परे जाना होगा। जब तक ‘मुझे मत-छू-वाद’ तुम्हारा धर्म है और रसोई की पतीली तुम्हारा इष्टदेव है, तब तक तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। धर्म,धर्म के बीच जो क्षुद्र मतभेद हैं, वे सब केवल शब्दिक हैं, उनमें कोई अर्थ नहीं। हर एक सोचता है, यह मेरा मौलिक विचार है और अपने मन के अनुसार ही सब काम करना चाहता है। इसी से संघर्षों की उत्पति होती है। दूसरों की आलोचना करने में हम सदा यह मूर्खता करते हैं कि किसी एक विशेष गुण को हम अपने जीवन का सर्वस्व समझ लेते हैं और उसी को मापदंड मानकर दूसरों के दोषों को खोजने लगते हैं। इस प्रकार दूसरों को पहचानने में हम भूलें कर बैठते हैं। इसमें संदेह नहीं कि कट्टरता और धर्मांधता द्वारा किसी धर्म का प्रचार बड़ी जल्दी किया जा सकता है, किंतु नींव उसी धर्म की दृढ़ होती है, जो हर एक को विचार की स्वतंत्रता देता है और इस तरह उसे उच्चतर मार्ग पर आरूढ़ कर देता है, भले ही इससे धर्म का प्रचार शनैः शनैः हो। भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जाएंगे। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है, इसके बाद है लौकिक ज्ञान का दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिए हमारी आंखें खोल देता है, इसके बाद आता है जीवन दान और चतुर्थ है अन्नदान। यदि साधना करते-करते शरीरपात भी हो जाए, तो होने दो, इससे क्या? सर्वदा साधुओं की संगति में रहते-रहते समय आने पर आत्मज्ञान होगा ही। एक ऐसा भी समय आता है, जब मनुष्य की समझ में यह बात आ जाती है कि किसी दूसरे आदमी के लिए चिलम भर कर उसकी सेवा करना लाखों बार के ध्यान से कहीं बढ़कर है। जो व्यक्ति ठीक-ठीक चिलम भर सकता है, वह ध्यान भी ठीक तरह से कर सकता है। देवतागण और कोई नहीं, उच्च अवस्था प्राप्त दिवंगत मानव हैं। हमें उनसे सहायता मिल सकती है। हर कोई आचार्य या गुरु नहीं हो सकता, किंतु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुष को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किंतु आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा क्यों कर देगा?