इनसानी फितरत का कितना कसूर

बारिश का जिक्र, मौसम की उद्दंडता या इनसानी फितरत का कसूर। ठीक एक साल बाद कोटरूपी पुनः रौद्र रूप में प्रकृति और प्रगति के बीच खोखले संवाद की निशानी की तरह अलार्म बजा रही है। मौसम की आहट पर शिक्षण संस्थानों को बंद रखने की पैरवी में कई सवाल एक साथ, हिमाचल से पूछे जा रहे हैं। यह छुट्टियों का विकास है या शिक्षा विभाग के अवकाश कैलेंडर में छेद इतने हो गए कि मौसम को समझना ही मुश्किल हो गया। दरअसल हिमाचल में स्कूली छुट्टियां इस कद्र सरका दीं कि अब बादल तय करते हैं कि शिक्षण संस्थान में कब घंटी बजे। भरी बरसात में स्कूली गतिविधियों का संचालन अमर्यादित इसलिए भी कि यह कौन सा गणित है जो समझ नहीं पा रहा कि किस मौसम में स्कूल बंद रखे जाएं। कांगड़ा में मौसमी अवकाश का यह हफ्ता आपदा प्रबंधन की दृष्टि से आवश्यक माना गया, तो पुनः एक नए सप्ताह की शुरुआत में प्रदेशभर के स्कूल बंद रखे गए। खतरा मौसम के अव्यवहार के साथ-साथ स्कूल भवनों की असुरक्षित छत का भी है। बहरहाल बारिश ने पुनः हिमाचली विकास को बुरी तरह धो डाला। जाहिर है वर्तमान मंजर भयावह व अपनी विद्रूपता में चेतावनी देता हुआ विकास का खतरनाक मुआयना भी कर रहा है। आपदा प्रबंधन की दृष्टि से अक्षम हिमाचल ने शायद फिर वक्त गंवा दिया और इसीलिए कई टूरिस्ट पुनः पानी के आगोश या सेल्फी के आवेश में जान गंवा रहे हैं। फिर दरकते पहाड़ को चिन्हित करते विकास का दामन आंसुओं से भीग रहा है और  अचानक मौत के सैलाब में बहती पहाडि़यों का रक्तस्राव किसने देखा। अचानक पहाड़ ने बस्ती का दामन लील दिया और फिर कहीं कंडाघाट के गांव में घर श्मशानघाट बन गया। हर दिन कहर की सूचना घरौंदे उजाड़ने लगी और विकास के ताने बाने में फंसी इनसान की छत झुक जाती है। नदी-नाले उफान पर अपने ही साहिल से मुकाबिल और जिरह तोड़ती जंजीरों के सामने प्रकृति की विनाशलीला को समझना होगा। कहीं हमने प्राकृतिक संतुलन को जरूरत से ज्यादा नोच तो नहीं लिया या विकास को भयावह अंजाम तक पहुंचा दिया। मौसम की विकरालता या विकास की सहजता को समझे बिना हम बेकसूर नहीं माने जाएंगे। पर्वतीय विकास के मानदंडों का उल्लंघन जब कभी राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल पकड़ता है, तो हम वैध-अवैध के बीच राहत के फार्मूले देख लेते हैं, लेकिन जब कभी नारकंडा के मकान की छत पर पहाड़़ बरसता है, तो एक साथ परिवार के चार सदस्यों की मौत हम सभी के अस्तित्व से बहुत कुछ पूछ रही होती है। हिमाचल को अपनी जरूरतों के हिसाब से मौसम के हर प्रश्न का उत्तर चाहिए। विज्ञान और तकनीक के हिसाब से विकास और समाज के प्रश्न मुखातिब हैं। क्या हम केवल बरसात या बर्फबारी के दौरान ही नींद से जागेंगे या हर नदी-नाले का साल भर हाल पूछेंगे। हर बस्ती का अपराध जांचेंगे या अफरा-तफरी के विकास को आंखें मूंद कर स्वीकार करते रहेंगे। हिमाचल में मौसम व जंगल के प्रबंधन को समझने की आवश्यकता है, जबकि जल प्रबंधन के वार्षिक व्यवहार के अध्ययन का संज्ञान लेना भी लाजिमी है। पहाड़ों पर माफिया के प्रभाव में विकास की बदलती संगत को नहीं रोका, तो नदी-नाले ही नहीं बादल भी बार-बार भटकेंगे। सड़कें अगर भ्रष्टाचार की नींव पर केवल एक दिखावा होंगी, तो विकास की हर नई मंजिल कब्र के करीब ही पहुंचाएगी। बदलते मौसम या परिवर्तित होती जलवायु की चुनौतियों के बीच जीने की अनुशासित पद्धति क्या होगी और यह भी कि आपदा प्रबंधन की दृष्टि से केवल स्कूल में छुट्टी कराना ही पर्याप्त होगा या ऐसे प्रश्नों को हम किसी एक आधिकारिक फरमान से हल नहीं करेंगे, बल्कि वक्त गंवा कर केवल टाल ही रहे होंगे।