ईश्वर की खोज

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…     

एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करो, जो धरती के भीतर से एक खान के द्वार से सूर्य को देखता है, उसे सूर्य का एक पहलू दिखाई देता है। दूसरा सूर्य को पृथ्वी के धरातल से देखता है, एक कोहरे और धुंध में से, एक पर्वत की चोटी पर से, प्रत्येक को सूर्य भिन्न दिखाई देगा। इस प्रकार दृश्य अनेक हैं, पर वास्तव में सूर्य केवल एक है। भेद दृष्टि का है, पर वस्तु एक है और वह सूर्य है।

प्रत्येक मनुष्य में उसकी प्रकृति के अनुसार विशिष्ट प्रवृत्ति होती है और वह कुछ आदर्श स्वीकार कर लेता है और उन तक पहुंचने के लिए विशिष्ट  मार्ग अपनाता है। पर लक्ष्य सबके लिए सदा एक है। रोमन कैथोलिक गंभीर और आध्यात्मिक है, पर उसने व्यापकता खो दी है। यूनिटेरियन व्यापक है, पर उसने आध्यात्मिकता खो दी है और वह धर्म को विभक्त महत्त्व का समझता है। हमें आवश्यकता है रोमन कैथोलिक की गहराई और यूनिटेरियन की व्यापकता की। हम आकाश के समान विस्तीर्ण और सागर के समान गंभीर हों, इसमें धर्मांध का सा उत्साह, रहस्यवादी सी गंभीरता और अज्ञेयवादी सी व्यापकता होनी चाहिए। ‘सहिष्णुता’ शब्द ने उस घमंडी मनुष्य का अप्रीतिकर संसर्ग प्राप्त कर लिया है, जो अपने को उच्च स्थान में समझकर अपने साथी प्राणियों को दया की दृष्टि से देखता है। मन की यह स्थिति भयानक है। हम सब उसी दिशा में, एक ही गंतव्य की ओर, पर विभिन्न प्रकृतियों की आवश्यकता के अनुसार उनके लिए उपयुक्त मार्गों से जा रहे हैं।

हमें बहुपार्श्वीय होना चाहिए, वास्तव में हमें इतना नम्र हो जाना चाहिए कि हम दूसरे को केवल सहन ही न कर सकें, वरन जो उससे कहीं अधिक कठिन काम है, उसके साथ सहानुभूति कर सकें, उसके मार्ग में साथ चल सकें और उसकी महत्त्वाकांक्षा तथा ईश्वर की खोज में, जैसा वह अनुभव करता है, वैसा ही हम भी कर सकें। धर्म में दो तत्त्व होते हैं सकारात्मक और नकारात्मक। उदाहरणार्थ, ईसाई धर्म में, जब तुम अवतार, त्रिदेव, ईसा के द्वारा मुक्ति की बात करते हो, तो मैं तुम्हारे साथ हूं। मैं कहता हूं, बहुत ठीक, इसे मैं भी सत्य मानता हूं, पर जब तुम यह कहने लगते हो, दूसरा कोई सच्चा धर्म है ही नहीं, ईश्वर अन्यत्र कभी प्रकट ही नहीं हुआ, तो मैं कहता हूं, ठहरो, यदि तुम किसी को वर्जित करते हो अथवा किसी का खंडन करते हो, तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊंगा। प्रत्येक धर्म के पास देने को एक संदेश है, मनुष्य को सिखाने के लिए कुछ वस्तु है, पर जब वह विरोध करने लगता है, दूसरों को छेड़ने लगता है, तो वह एक नकारात्मक और इसलिए एक खतरनाक रूप ले लेता है और नहीं जानता कि कहां आरंभ करे और कहां अंत। प्रत्येक शक्ति एक चक्र पूरा करती है। वह शक्ति, जिसे हम मनुष्य कहते हैं, अनंत ईश्वर से चलती है और उसे उसी में लौटना चाहिए।  ईश्वर में लौटने की यह क्रिया दो में से एक प्रकार से पूरी होनी चाहिए या तो प्रकृति का अनुसरण करते हुए पीछे सरकने में अथवा स्वयं अपनी आतंरिक शक्ति से, जो हमें मार्ग में रुकने को बाध्य करती है, जो यदि मुक्त छोड़ दिए जाने पर हमें एक चक्र में ईश्वर तक वापस ले जाती, और जो झटके से घूमकर ईश्वर को मानो एक छोटे रास्ते से पा लेती है।

—  क्रमशः