ऊर्जा मंत्री के हस्ताक्षर

मंत्री अपने हस्ताक्षर का दायरा और जिम्मेदारी समझें, तो फाइलें भी सक्रिय हो जाएंगी। ऊर्जा मंत्री के हिसाब से जब अनिल शर्मा ने बिजली बोर्ड के ‘बोर्ड’ से खुद को नदारद पाया, तो पता चला कि उनके दायित्व की वेशभूषा क्या है। आश्चर्य है कि जिस विभाग के सारे मायने ओढ़ कर विद्युत परिषद आज तक घाटे की वित्तीय व्यवस्था बन चुकी है, उसे विभागीय ऊर्जा से भिन्न देखा जा रहा है, यानी विद्युत मंत्री को बोर्ड के निदेशक मंडल की अध्यक्षता करने का रुतबा हासिल नहीं। बहरहाल अनिल शर्मा पहले मंत्री हैं, जो अपने हस्ताक्षर को दायित्व के हिसाब से लिखना चाहते हैं। ऊर्जा मंत्रालय की सारी कसौटियां विद्युत बोर्ड में पारदर्शिता, जवाबदेही तथा वित्तीय अनुशासन से ही साबित होती हैं, तो इसका संचालन दोहरी भूमिका में अस्पष्ट क्यों है। लिहाजा मंत्री के हक में विद्युत परिषद का नेतृत्व सियासी परंपरा का अहम हिस्सा हो सकता है, फिर भी इसके दो अर्थ हैं। क्या यह जरूरी है कि निगम-बोर्डों को राजनीतिक नेतृत्व के अधीन ही रखा जाए या इस परंपरा का निर्वहन किसी एक बोर्ड के लिए अलग रखा जाए। अगर बाकी बोर्ड-निगमों में मंत्री सर्वेसर्वा हैं, तो ऊर्जा मंत्री की ख्वाहिश की पैमाइश जरूरी है, फिर भी प्रश्न यहां बोर्ड-निगमों के स्वतंत्र व निष्पक्ष संचालन का बना रहेगा। हालांकि जयराम ठाकुर सरकार ने अभी तक सभी बोर्ड-निगमों पर राजनीतिक हस्तियों को फटाफट बैठाने का उत्साह पूरी तरह नहीं दिखाया है, फिर भी यह तय है कि प्रबंधन की काबिलीयत के बजाय राजनीतिक अनुभव को ही अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बनाए जाने की वरीयता मिलेगी। अमूमन होता भी यही है कि कई बार विभागीय मंत्री और संबंधित बोर्ड-निगम के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के बीच कार्य बंटवारे को लेकर तनातनी हो जाती है। पूर्व सरकार में बाली बनाम केवल सिंह पठानिया के बीच एक ऐसा ही मसला था, जहां मंत्री और परिवहन निगम के बीच दो हस्तियों के बीच टकराव सामने आया और अंततः पठानिया को वहां से हटना पड़ा। वर्तमान सरकार के दौरान कांगड़ा केंद्रीय सहकारी बैंक की अध्यक्षीय पारी खेलने को उतारू सियासत ने संस्था के मौलिक आचरण को ही बंधक बना दिया है और मामला अदालत तक पहुंच गया। ऐसे में सियासत की ऐसी जोर आजमाइश का नतीजा सीधे वित्तीय प्रबंधन पर पड़ता है तथा अनुशासनहीनता के कारण आम जनता के बचत खाते भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। मौजूदा दौर में अभी तक यह चर्चा सामने नहीं आई है कि किस तरह बिजली बोर्ड या ऐसे अन्य कई बोर्ड-निगमों को घाटे से उबारा जाए, बल्कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा सिर्फ इनके ऊपर काबिज होने की ही दिखाई दे रही है। प्रदेश की अमानत या बोर्ड-निगमों के संचालन का फैसला अगर भाजपा के राष्ट्राध्यक्ष या राज्य प्रभारी की मंत्रणा का अहम बिंदु रहेंगे, तो न नीति और न नीयत में पिछली सरकार के मुकाबले कोई अंतर आएगा। स्कूल शिक्षा बोर्ड का नेतृत्व अगर कोई चर्चित शिक्षाविद करे, तो शिक्षा में गुणवत्ता लाने की अभिलाषा पूरी हो सकती है, वरना कुछ अद्भुत फैसलों के तहत राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ही पूरी होगी। होता भी यही आया है कि हर परिवहन मंत्री अपने वर्चस्व के लिए परिवहन निगम का दोहन करता रहा है। पूर्व परिवहन मंत्री ने महज अपने विधानसभा क्षेत्र और निजी परिवहन मालिकों को सबक सिखाने के लिए नगरोटा बगवां में एचआरटीसी का बस डिपो खोल दिया, तो ऐसी दक्षता के मायने क्या होंगे। होना तो यह चाहिए कि एचआरटीसी के बस डिपो कम करके निजी क्षेत्र से व्यावसायिक दक्षता सीखी जाए, लेकिन होगा इसके विपरीत। मिल्क फेडरेशन के घाटे को रोकने के लिए गुजरात की आनंद दुग्ध सहकारी परिकल्पना से सीखने से पहले इसका नेतृत्व गैर राजनीतिक करना पड़ेगा। कमोबेश हर बोर्ड-निगम के कुशल संचालन के लिए व्यावसायिक प्रवृत्ति तथा दक्ष विशेषज्ञों का नेतृत्व चाहिए, लेकिन राजनीति के अलंकरण इसके विरुद्ध खड़े रहेंगे। यह सत्ता का प्रभाव है कि हर बार प्रदेश के आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग करके नेतागण सरकारी उपक्रमों को चौराहों पर छोड़ जाते हैं।