कविता

डा. विनोद गुलियानी, बैजनाथ

‘अटल’ एक तिलिस्म

कुछ बात तो थी उसमें

जो दुशमन को भी भाता था

तीर शब्दों के छोड़-छोड़

मैदान मार के आता था!

पद से ऊंचा जिसका कद था

नाम ही नहीं, काम भी अटल था

भारत रत्न तो गौण था

वह खुद ही एक रत्न था!

आज वह चला गया

कल हम जाएंगे

क्या उसकी स्पष्ट सोच को

हम सब समझ पाएंगे!

देश को जगाने वाला चला गया

नींद से उठाने वाला चला गया

काव्य शैली से झकझोर करता चला गया

इनसानों का इनसान चला गया!

विश्व ने श्रद्धा से शीश झुकाया है

क्योंकि सबने कुछ न कुछ तो पाया है

अपनी सोच का परचम लहराया है

खुदा भी ऐसी हस्ती देख मुस्कुराया है!!