जीवन मुक्त होना

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अंतर ही क्या? और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा? गुरु को शिष्य के पापों का बोझ वहन करना पड़ता है और यही कारण है कि शक्तिशाली आचार्यों के शरीर में भी रोग प्रविष्ट हो जाते हैं। यदि गुरु अपूर्ण हुआ, तो शिष्य के पाप उसके मन पर भी प्रभाव डालते हैं और इस तरह उसका पतन हो जाता है। अतः आचार्य होना बड़ा कठिन है। आचार्य या गुरु होने की अपेक्षा जीवन मुक्त होना सरल है, क्योंकि जीवन मुक्त संसार को स्वप्नवत मानता है और उससे कोई वास्ता नहीं रखता, पर आचार्य को यह ज्ञान होने पर भी कि जगत स्वप्नवत है, उसमें रहना और कार्य करना पड़ता है। हर एक के लिए आचार्य होना संभव नहीं। आचार्य तो वह है, जिसके माध्यम से दैवी शक्ति कार्य करती है। आचार्य का शरीर अन्य मनुष्यों के शरीर से बिलकुल भिन्न प्रकार का होता है। उस (आचार्य के) शरीर को पूर्ण अवस्था में बनाए रखने का एक विज्ञान है। उसका शरीर बहुत ही कोमल, ग्रहणशील तथा तीव्र आनंद और कष्ट का अनुभव कर सकने की क्षमता रखने वाला होता है। वह असाधारण होता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में हम देखते हैं कि अंतरमानव की ही जीत होती है और यह अंतरमानव ही समस्त सफलता का रहस्य है। नवद्वीप के भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य में भावनाओं का जैसा उदात्त विकास देखने में आता है, वैसा और कहीं नहीं। श्री रामकृष्ण एक महान दैवी शक्ति हैं। तुम्हें यह न विचार करना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह है या वह, कंतु वह एक महान शक्ति है, जो अब भी उनके शिष्यों में वर्तमान है और संसार में कार्य कर रही है। मैंने उनको उनके विचारों में विकसित होते देखा है। वे आज भी विकास कर रहे हैं। श्री रामकृष्ण जीवन मुक्त भी थे और आचार्य भी। हम राजयोग और शारीरिक व्यायाम पर विचार कर रहे थे। अब भक्ति के द्वारा योग पर विचार करेंगे, पर तुम्हें याद रखना चाहिए कि कोई भी एक प्रणाली अनिवार्य नहीं है। मैं तुम्हारे सामने बहुत सी प्रणालियां, बहुत से विचार, इसलिए रखना चाहता हूं कि तुम उनमें से उसे चुन सको, जो तुम्हारे लिए उपयुक्त हो, यदि एक उपयुक्त नहीं है, तो शायद दूसरी निकल आए। हम ऐसे सामंजस्ययुक्त व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिसमें हमारी प्रकृति के मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और क्रियावान पक्षों का समान विकास हुआ हो। जातियां और व्यक्ति इनमें से एक पार्श्व अथवा प्रकार का विकास व्यक्त करती हैं और वे उस एक से अधिक को नहीं समझ पातीं। वे एक आदर्श में ऐसी ढल जाती हैं कि किसी अन्य को नहीं देख सकतीं। वास्तविक आदर्श यह है कि हम बहुपार्श्वीय बनें। वास्तव में जगत के दुख का कारण यह है कि हम इतने एकपार्श्वीय हैं कि दूसरे के प्रति सहानुभूति नहीं कर पाते।