जी न सकने के बहाने

विराम

मरने से पहले जीने को तवज्जोह न दे सकना हमारी विडंबना है। मरने के बाद जो जीवन है, उसको खंगालने के सभी उपाय करने पर तुले हैं। मुट्ठी में रेत भरी है, लेकिन हीरे समझ संजोने में जुटे हैं। कर सकने की हर संभावना को घंटियों की प्रतिध्वनियों में धकेल रहे हैं। समय की जीत को अपनी हार में तबदील करने की बाट जोह रहे हैं। जिंदगी का अक्स धुंधला है। जीवन का द्वार अधखुला है। मानो कीचड़ में गुलाब खिला देंगे। हाथ की लकीरों में ताजमहल के नक्शे ढूंढ रहे हैं। जेब के किले में मानो मुमताज बंद है।

बाजार खुले हैं, मगर गली कूचे तंग हैं। जो हो सकता है, वह होता नहीं। जो खो जाना चाहिए, वह हो रहा है। जो सो जाना चाहिए, वह रो रहा है। अपनी दीवारों पर आइने लटकाकर उनके अक्स को कोस रहे हैं। अपने अक्स को जमीं पर बिछाने के हजार ढंग खोज रहे हैं। चांद के दाग पर गीत लिखते हैं। खुद की ठोडी पर गड़े तिल को कोस रहे हैं। वे अपने हैं, लेकिन हम उनके नहीं होते। भोजन भी हमारा, बर्तन भी हमारे, जूठन भी हमारी, पर उन्हें नहीं धोते। जहां जाना चाहिए, वहां जाना होता नहीं। जहां नहीं जाना चाहिए, वहीं दिल्लगी है। जो महफूज है दिल में, उसे दिमाग में पिरोते नहीं। वक्त से आंख बचाकर जिंदगी चुरा लेना हमारी नीयत-सी। बिखरे हुए आसमां-सी हमारी तबीयत-सी। बीत चुके के गान में तल्लीन हैं। आने वाले कल के लिए गमगीन हैं। बुरे को कोसते नहीं, अच्छे को परोसते नहीं। शब्दों में उलझे हैं, एकांत को खोजते नहीं।

अर्थ से दूर हैं, भाव से बेजार से। घर में मानो जंचे हैं बाजार से। पूरा बाजार बिकने को तैयार है। घर इसे लेने को बेकरार है। हम छोटे हो गए हैं जेबें बहुत बड़ी। दिल के आंगन में न प्यार की तुलसी है, न गेंदे का कंधे उचकाता कोई फूल। जिंदगी सब जान रही, पर हम सब रहे भूल। मौत पर मातम कर रहे, लेकिन जीवन को तरस रहे। जो कहना है, कहा जाता नहीं। जो नहीं कहना, बगल से निकल-निकल आता है। सपनों में किश्ती पर  जिंदगी तैर रही है। तंगदिली की लहरें हैं। जहां है भंवर, वहीं जा ठहरे हैं। प्यास अपनी है। कुआं भी हमारा, फिर भी प्यासे ही तड़प रहे हैं।

-भारत भूषण ‘शून्य’