हिमाचल की बदतर होती स्वास्थ्य सेवाएं

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया कि 59 फीसदी ग्रामीण तथा 41 फीसदी शहरी जनसंख्या सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही चिकित्सा सुविधाओं से असंतुष्ट है। 45 फीसदी लोगों के अनुसार चिकित्सा स्टाफ रिश्वत मांगता है। पूरे देश के रूप में विचार करें, तो हिमाचल व पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां पर अधिकतर लोग सरकारी चिकित्सा सुविधाओं का प्रयोग करते हैं। सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में समस्या यह है कि यहां से करीब 37 फीसदी मरीजों को बेहतर सुविधाएं देने के लिए निजी अस्पतालों में रैफर कर दिया जाता है…

हाल में हिमाचल प्रदेश को सुशासन के मामले में छोटे राज्यों में टॉप पर आंका गया है तथा हमें मेगा हेल्थ केयर स्कीम का भी गर्व है जिसे जल्द ही शुरू किया जाएगा। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि क्या इस कठिन भौगोलिक स्थिति वाले प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को संजीदगी के साथ लिया गया है? कई लोग इसे भारत का स्विट्जरलैंड कहते हैं। यह एक ऐसा ताज है जो कठिनाइयां झेल रहे लोगों को उत्तराधिकारी सरकारों द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने के बेहतर रिकार्ड में पात्र संस्था को दिया जाता है। कुल्लू के एक विधायक सुंदर सिंह पिछले दो हफ्ते से घटिया चिकित्सा सेवाओं के कारण धरने पर हैं तथा अब वह कुल्लू बंद की योजना भी बना रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि कुल्लू जैसा शहर, जो शॉल तथा पर्यटन के लिए विश्व भर में ख्यात है, उसके पास अस्पताल में एक भी गायनीकोलोजिस्ट नहीं है। इसके जरिए न केवल कुल्लू शहर को सुविधा दी जा सकती है, बल्कि साथ लगते लाहुल-स्पीति क्षेत्र के लोग भी इससे लाभ उठाते हैं। आजकल पर्यटन सीजन चल रहा है तथा कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि इस तरह की सुविधाएं अनुपलब्ध रहे। वनों में रहने की चाहत में जब मैं दिल्ली छोड़कर हिमाचल आया था तो कई लोगों ने यह सवाल किया था कि तब क्या होगा जब आपको तुरंत चिकित्सा सेवाओं की जरूरत पड़ेगी। पूछने वाले सभी लोगों ने कहा था कि हिमाचल के बजाय उसके पड़ोसी राज्यों में जाएं। यह 15 साल पहले की बात है तथा आज भी सभी यह कहते हैं कि पंजाब या चंडीगढ़ में रहो। प्रदेश के सरकारी दस्तावेजों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बढि़या है। दस्तावेज के अनुसार यहां 2069 क्लीनिकल फेसिलिटी हैं, दो मेडिकल कालेज हैं तथा इसके अलावा कई आयुर्वेदिक तथा देसी प्रणाली वाले अस्पताल हैं।

एक पूर्व मंत्री की सलाह पर मैं अपनी पत्नी को कांगड़ा ले गया। यहां बढि़या मूलभूत ढांचा है, किंतु सभी फैकल्टी में विशेषज्ञ तथा मैनेजमेंट नहीं है। मुझे यह देखकर दुख हुआ कि एक मुख्य चिकित्सा संस्थान को बजट में घाटे को पाटने के लिए लाइट को बंद रखना पड़ रहा था। यहां पर अन्य सुविधाएं तथा महत्त्वपूर्ण पदों पर विशेषज्ञ डाक्टर भी नहीं थे। मैं दिल्ली से हिमाचल को दस साल से भी अधिक समय पहले शिफ्ट हुआ था। दिल्ली में मेरा अपना मकान तथा फार्म हाउस था जिसे छोड़कर मैंने अपने पैतृक गांव में एक शांत वातावरण वाला स्थान पाया। महानगरों से आने वाले कई यात्री मुझे अकसर पूछते हैं कि अगर स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत पड़ेगी तो आप क्या करेंगे। मैंने सोचा था कि आने वाले समय में हमारे पास बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं होंगी, परंतु अब दस साल के बाद मैं यहां की स्वास्थ्य सेवाओं को उसी स्तर की पाता हूं अथवा उससे भी घटिया स्थिति हो गई है। कुछ साल पहले मेरी पत्नी बीमार हो गई।

उस वक्त मुझे पता चला कि चंडीगढ़ या दिल्ली जाने के सिवाय मुझे कहीं भी विशेषज्ञ चिकित्सकों की सेवाएं नहीं मिल सकती। इसलिए मुझे चंडीगढ़ से अगली उपलब्ध उड़ान से दिल्ली को जाना पड़ा। मेरी पूछताछ में पता चला कि ब्लाक स्तर पर हमारे पास उपचार करने वाले उपकरण नहीं हैं। इस संबंध में एक मिसाल देना चाहूंगा। एक ब्लाक में एक अल्ट्रासाउंड मशीन स्थापित की गई। बाद में इसे अन्य कस्बे दौलतपुर को शिफ्ट कर दिया गया। वहां से भी कुछ समय बाद इसे जिला अस्पताल ऊना शिफ्ट कर दिया गया जहां पर अब यह धूल फांक रही है तथा इसका प्रयोग नहीं हो पा रहा है। उसकी मरम्मत भी नहीं की जा रही है। इसी तरह कई ब्लाक शिकायत करते हैं कि उनके पास उपकरण नहीं हैं तथा विवश होकर उन्हें मरीजों को निजी अस्पतालों में रैफर करना पड़ता है। एक सर्वे भी किया गया जिसमें यह तथ्य सामने आया कि 59 फीसदी ग्रामीण तथा 41 फीसदी शहरी जनसंख्या सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही चिकित्सा सुविधाओं से असंतुष्ट है। 45 फीसदी लोगों के अनुसार चिकित्सा स्टाफ रिश्वत मांगता है। पूरे देश के रूप में विचार करें तो हिमाचल व पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां पर अधिकतर लोग सरकारी चिकित्सा सुविधाओं का प्रयोग करते हैं। सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में समस्या यह है कि यहां से करीब 37 फीसदी मरीजों को बेहतर सुविधाएं देने के लिए निजी अस्पतालों में रैफर कर दिया जाता है। सरकारी अस्पताल बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने में विफल रहे हैं जिसके कारण इनके आसपास ही निजी चिकित्सा संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। अधिकतर सरकारी विभागों में स्टाफ की भी कमी चल रही है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध सरकारी चिकित्सा संस्थानों में से 60 फीसदी में पर्याप्त स्टाफ ही नहीं है। इसके अलावा 30 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां डाक्टर ही नहीं हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की हालत भी कुछ इसी तरह है। स्वास्थ्य विभाग में कुल स्वीकृत पदों में से 295 पदों पर डाक्टरों की कमी चल रही है। बिलासपुर मेें एम्स का निर्माण कार्य जल्द शुरू होने वाला है, किंतु इसके निर्माण में काफी समय लगेगा। प्रदेश की एक समस्या यह भी है कि यहां जितने भी बड़े चिकित्सा संस्थान हैं, वह किसी मध्य भाग में स्थित होने के बजाय कहीं किनारे पर बनाए गए हैं। इससे लोगों की पहुंच इन संस्थानों तक नहीं बन पा रही है। जब तक हिमाचल में एम्स जैसे बड़े संस्थान नहीं बनते हैं, तब तक सरकार को टांडा अस्पताल को अपग्रेड करना चाहिए, इसके लिए उपकरण भी जुटाने चाहिए। यहां पर काफी जमीन है तथा भवन भी अच्छा है।

इसके लिए सरकार की ओर से और फंड की जरूरत पड़ेगी। लोगों को बेहतर चिकित्सा सुविधा देने के लिए यहां पर पर्याप्त डाक्टरों की व्यवस्था की जानी चाहिए। हिमाचल के पास कई जिलों में नेशनल हेल्थ रिजोर्ट विकसित करने की व्यापक संभावनाएं हैं, किंतु सरकारी स्तर पर सृजनात्मक नियोजन का अभाव खलता है। प्रदेश के लिए यह फायदे की बात है कि जेपी नड्डा के रूप में उसका स्वास्थ्य मंत्री केंद्रीय कैबिनेट में है। वह प्रगतिशील नेता हैं। वह इस तरह के सृजनात्मक नियोजन को एक नई दिशा दे सकते हैं। प्रदेश में वातावरण भी अच्छा है तथा वह यहां पर बेहतर स्वास्थ्य ढांचा खड़ा करने के लिए देशभर के लोगों को यहां आकर्षित कर सकते हैं। उस स्थिति में प्रदेश के लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए दूसरे राज्यों को नहीं दौड़ना पड़ेगा। क्या नड्डा यहां पर स्वास्थ्य ढांचा मजबूत करने के लिए निवेश को आकर्षित करने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाएंगे।

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