आत्म पुराण

अब मैत्रेयी का भी वृत्तांत सुनो। वह ब्रह्मवेत्ता मैत्रेयी भी याज्ञवल्क्य के समान संन्यास ग्रहण करके विचरण करने लगी। अंतर इतना ही था कि याज्ञवल्क्य ने दंड धारण करके लिंग संन्यास ग्रहण किया था, पर मैत्रेयी ने स्त्री होने के कारण बिना दंड वाला अलिंग संन्यास लिया था। हे शिष्य! शास्त्र में कहा है कि दंड ग्रहण करके लिंग संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है। जिन क्षत्रिय, वैश्य और स्त्रियों की पूर्व कर्मों के प्रभाव से उत्कट वैराग्य हो जाए वे अलिंग संन्यास ग्रहण करके संन्यासियों के सब कर्मों को कर सकते हैं।

शंका-हे भगवन! श्रुति में तो किसी स्थान पर कहा गया है कि ‘स्त्री शूद्रौ नाधीयताम’ अर्थात स्त्री और शूद्र दोनों को वेद का अध्ययन नहीं कराया जाए। तब स्त्रियों के संन्यास लेने से क्या श्रुति का विरोध न होगा?

समाधान-हे शिष्य! जब गुरु के वेद उच्चारण करने के साथ ही शिष्ट भी उच्चारण करता रहे, तो उसका नाम अध्ययन होता है, पर जब किसी ब्रह्मवेत्ता गुरु के मुख्य से वेद का श्रवण किया जाए तो उसको अध्ययन नहीं कहा जाता और उसका अधिकार तीनों वर्णों की स्त्रियों को ही है। यदि कोई इसका विरोध करे, तो वह स्वयं श्रुति का विरोधी माना जाएगा, क्योंकि वेदों में ही गार्गी, मैत्रेयी आदि स्त्रियों को ब्रह्म विद्या का उपदेश देना निहित माना गया है।

हे शिष्य! इस प्रकार मैत्रेयी दंड रहित अलिंग संन्यास लेकर ब्रह्मचर्यादि साधनों का विधिपूर्वक पालन करती हुई संसार में विचरती रही। हे शिष्य! याज्ञवल्क्यजी ने अपनी स्त्री के प्रति जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था, वह समस्त तुमको श्रवण करा दी। अब जो अन्य विषय तुम सुनना चाहते हो उसे बताओ।

आठवां अध्याय

याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में यह वार्ता आई थी कि प्राचीन मुनीश्वरों ने जगत के कारण पर विचार करते हुए अविद्या रूप शक्ति को देखा था। इसका उल्लेख करके शिष्य ने गुरु से प्रार्थना की कि ‘हे भगवन! उन मुनीश्वरों ने किस प्रकार जगत की उत्पत्ति पर विचार किया था? उन्होंने जगत का कारण ब्रह्म को ही माना था या किसी अन्य पदार्थ को।? शिष्य की प्रार्थना सुनकर गुरु ने कहा, हे शिष्य! पहले समय में एक श्वेताश्वर नाम के ऋषि थे, जिन्होंने घोर तपस्या करके समस्त पापों को नष्ट कर डाला था। किसी समय उनके आश्रम में बहुत से महात्मा संन्यासी इकट्ठे होकर आए। उन्होंने श्वेताश्वतर जी से कहा, हे वेद की शाखा का परिवर्तन करने वाले श्वेताश्वतर मुनि! आपका कल्याण हो। हम अतिथि संन्यासी तुम्हारे आश्रम में ब्रह्मविद्या रूपी भिक्षा मांगने आए हैं, जो ब्रह्मविद्या आपको ब्रह्मा के उपदेश द्वारा प्राप्त हुई है, उसी के श्रवण करने से हमारे संशय की निवृत्ति होगी। हे भगवन! शास्त्रों के भिन्न-भिन्न संप्रदायों को अंगीकार करके हम संन्यासी जगत के कारण के विषय में भिन्न-भिन्न मत रखते हैं। इस पर हम में बहुत काल तक विवाद हुआ, परंतु हम यह निश्चय नहीं कर सके कि जगत का कारण कौन सा पदार्थ है?

श्वेताश्वतर-हे संन्यासियों! जैसे इस समय तुम सब जगत के कारण का विचार करने इकट्ठे हुए हो, वैसे ही पहले भी किसी समय एक देश में संपूर्ण वेदवेत्ता ब्राह्मण इकट्ठे हुए थे। वे ब्राह्मण वेद और वेद के षट् अङ्गों में अत्यंत कुशल थे और कुछ अन्य ब्राह्मण दूसरी विद्याओं में कुशल थे। उन समस्त ब्राह्मणों में जो ब्रह्मवेत्ता थे, वे अन्य अज्ञानी जीवों की कल्याण भावना से कहने लगे, हे ब्राह्मणो! वेद-वेदांग में कुशल तथा संसार पर अनुग्रह करने वाले तुम सब ब्राह्मणों से हमारा आग्रह है कि यहां कोई ऐसा विचार करो, जिससे लोगों का उपकार हो। इसी से अज्ञानी मनुष्यों का हित हो सकेगा। इसलिए तुम ग्लानि उत्पन्न करने वाली लौकिक कथाओं का परित्याग करके वेद के वचनों पर विचार करो।