उच्च्तम न्यायालय में लंबित अयोध्या मामला

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

खुदा ही जाने लोग सोलहवीं शताब्दी से चले आ रहे अयोध्या विवाद को अभी किस शताब्दी तक और क्यों लटकाए रखना चाहते हैं? लेकिन 27 सितंबर को उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने दो-एक के बहुमत से फैसला दे दिया कि इस्माइल फारुखी केस को न तो संवैधानिक पीठ को भेजे जाने की जरूरत है और न ही अयोध्या मामले को अब और लटकाने की जरूरत है। अयोध्या का केस 29 अक्तूबर से सुनना शुरू कर दिया जाए। हमें कपिल सिब्बल से पूरी सहानुभूति है। हम राजीव धवन की योग्यता के भी कायल हैं, जिन्होंने इस्लाम का गहरा अध्ययन करने के बाद फतवा दिया कि मस्जिद में नमाज अता करना इस्लाम का मूल हिस्सा है। वहीं बहुत से अरबी मुसलमान भी मानते हैं कि नमाज कहीं भी अता की जा सकती है…

अयोध्या में मस्जिद को लेकर उच्चतम न्यायालय का एक अति महत्त्वपूर्ण निर्णय आया है। न्यायालय को दो मुद्दों पर अपना स्पष्ट अभिमत देना था। पहला मुद्दा यह था कि किसी मस्जिद विशेष में जाकर नमाज पढ़ने का अधिकार इस्लाम का मौलिक हिस्सा है या नहीं? यह मसला अयोध्या के विवाद से जुड़ा हुआ है, क्योंकि वहां आज से पांच शताब्दी पूर्व सोलहवीं शताब्दी में मध्य एशिया से आए हमलावर बाबर के सिपाहसलारों ने, अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ के सुपुत्र श्री रामचंद्र जी की स्मृति में बने मंदिर स्थल को गिरा कर, उसी के मलबे को इस्तेमाल करते हुए एक भवन बना दिया था, जो बाद में बाबरी मस्जिद के नाम से जाना गया। कुछ लोगों ने गुंबदनुमा उस भवन में नमाज पढ़नी शुरू कर दी और वह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होने लगा। तब से लेकर आज तक अयोध्या का यह मसला विभिन्न कचहरियों में चला हुआ है। बाबर के वक्त और बाद में उसके उत्तराधिकारियों के वक्त भी कचहरी का मतलब रणभूमि ही होता था और उसमें तो हिंदुस्तान के लोग हार ही चुके थे। यदि न हारते, तो बाबर के सिपाहसलार अयोध्या तक आ ही न पाते, राम मंदिर को तोड़कर अयोध्या को अपमानित करने की बात तो दूर की है। मुगलों के राज में भी धीरे-धीरे कोर्ट कचहरी बनी, लेकिन उसमें अयोध्या के पक्ष में फैसला कौन करता? वहां तो मुल्ला-मौलवी बुतपरस्ती को कुफर बताने में लगे हुए थे। धीरे-धीरे मामला लटकता गया।

बाबर भी सुपुर्देखाक हो गया, लेकिन अब बाबर के वंशजों ने कहना शुरू कर दिया कि अयोध्या में राम स्मृति में बने मंदिर पर बनाए गए ढांचे में क्योंकि नमाज पढ़ी जाती है, इसलिए यह ढांचा इस्लाम का हिस्सा हो गया है। उस समय भी कुछ लोगों ने कहा था कि मस्जिद और नमाज का इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था। नमाज पढ़ने के लिए किसी ढांचे की जरूरत नहीं है। कबीर तो गुस्से में भी थे और व्यंग्य भी कर रहे थे। उन्होंने कहा था ‘कंकर-पत्थर जोड़कर मस्जिद लाई बनाय, ता चढ़ मुल्ला बांग दै, क्या बहरा हुआ खुदाई’, लेकिन कबीर के फैसले को मानने वाला वहां कौन था? समय बीतता गया और अयोध्या का मामला लटकता ही गया। इस देश में हमलावर बदलते गए, लेकिन अयोध्या का मसला कोई कचहरी हल नहीं कर पाई, क्योंकि हमलावरों की कचहरियां हमलावरों की भाषा में ही फैसले देती हैं। मुगलों का राजपाट गया, तो एक नई बीमारी प्रकट हुई। यह इंग्लैंड की एक व्यावसायिक ईस्ट इंडिया कंपनी थी, जिसने व्यवसाय करते-करते हिंदुस्तान का राजपाट भी संभाल लिया और कंपनी से कंपनी बहादुर बन गई। फिर एक दिन कंपनी बहादुर से हिंदुस्तान छीनकर इंग्लैंड की महारानी इस देश की महारानी हुई। तब अयोध्या का मसला अंग्रेज बहादुर के इर्द-गिर्द घूमने लगा। अंग्रेज बहादुर बाबर के खानदान का भी बाप निकला। उसने उन हिंदुस्तानियों को, जो बाबर से लेकर औरंगजेब के समय में मुसलमान हो गए थे, पक्का करना शुरू कर दिया कि यह बाबरी ढांचा आप लोगों का है, क्योंकि अब बाबर नहीं है, लेकिन उसके मजहब को मानने वाले आप तो हैं। उनमें से भी कुछ लोगों ने कहा कि हम बाबर के वारिस नहीं हैं, हम तो हिन्दुस्तानी हैं, रामचंद्र तो हमारे पूर्वज थे। हमने भगवान की इबादत करने का तरीका बदला है, अपने बाप-दादा तो नहीं बदले, लेकिन कुछ अंग्रेज बहादुर के झांसे में आ गए। एक ओर अरब देशों से आए सैयद मुल्ला मौलवी और दूसरी ओर लांग लिव दि किंग गाते हुए ललमुंहे अंग्रेज बहादुर। उन दोनों के बीच में घिरे हिंदुस्तानी मुसलमानों ने अपने आपको सचमुच ही बाबर का वारिस मानना शुरू कर दिया।

वे इस्लाम की व्याख्या करने  में अरबी सैयदों के भी कान कुतरने लगे। नमाज पढ़ने से ज्यादा उनकी रुचि ढांचे को संभाले रखने में होने लगी। मुगल भी समाप्त हुए और अंग्रेज बहादुर भी भारत को तोड़कर चले गए, लेकिन अयोध्या का मसला हल न हो सका। 1947 में हिंदुस्तान तो टूट गया, लेकिन अयोध्या में बना बाबरी ढांचा नहीं टूट पाया। सोलहवीं शताब्दी से शुरू हुए अयोध्या विवाद ने 1992 में एक नया मोड़ ले लिया। लोगों ने बाबर के सिपाहसलारों द्वारा बनाए गए उस बाबरी ढांचे को स्वयं ही गिरा दिया। बेचारे रामलला अपने घर अयोध्या में ही एक तरपैल के नीचे आ गए। समय की गति सचमुच निराली है। वह भी समय था जब महाराजा अयोध्या में राज करते थे। फिर वह समय आया, जब उनके सुपुत्र रामचंद्र को अयोध्या छोड़कर चौदह साल जंगलों की खाक छावनी पड़ी।  फिर वह समय आया, जब इसी अयोध्या में बैठकर श्री राम ने रामराज्य का आदर्श स्थापित किया। फिर शताब्दियों बाद वह समय आया जब बाबर के सिपाहसलारों ने श्री राम की स्मृति में उनके जन्मस्थान पर बने मंदिर को गिराकर वहां बाबर की जीत का परचम लहरा दिया। फिर वह वक्त भी आ ही गया, जब राम को अपने ही घर में एक फटी पुरानी तरपैल के नीचे आना पड़ गया, लेकिन कचहरियों ने अयोध्या का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ लोगों का कहना है कि अब तो रामजन्म का यह स्थान मस्जिद हो गया है। इसलिए यहां नमाज पढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। इस पूरे विवाद में एक वक्त वह भी आया, जिसे हिंदुस्तान के लोग शायद ही कभी भूल पाएं। जो काम बाबर और उसके वारिस नहीं कर पाए, जिसको करने की हिम्मत अंग्रेज बहादुर की सरकार को नहीं हुई, वह आजाद भारत में सोनिया कांग्रेस की सरकार ने कर दिखाया। सरकार ने कचहरी को शपथपत्र देकर कहा कि हिंदुस्तान के इतिहास में रामचंद्र नाम का कोई राजा नहीं हुआ। सरकार के इस न कुकृत्यों की जानकारी जब देश के लोगों को मिली, तो क्रोध की जो लहर उठी उससे भयभीत होकर सरकार को अपना शपथपत्र वापस लेना पड़ा। सोलहवीं शताब्दी से विभिन्न प्रकार की कचहरियों में चले हुए इस विवाद को अंततः 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निपटा दिया। दरअसल इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय कभी 1994 के उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के आलोक में किया था। विधि जगत में यह फैसला इस्माइल फारुख केस के नाम से जाना जाता है। यह फैसला पांच जजों की पीठ ने दिया था। इस फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि किसी मस्जिद में नमाज अता करना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। नमाज तो कहीं भी अता की जा सकती है। इसी को आधार बनाते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने  वह जमीन जिस पर कभी बाबरी ढांचा था, तीन हिस्सों में बांट दी। एक हिस्सा रामलला के हिस्से आया, एक हिस्सा सुन्नी बोर्ड को दिया, तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया। इस पर दोनों पक्षकार फिर उससे भी बड़ी कचहरी उच्चतम न्यायालय में चले गए।

एक पक्ष का कहना था कि वह स्थान तो श्री रामचंद्र जी का जन्म स्थान है, उसे कैसे बांटा जा सकता है, वह सारा रामलला का ही है। दूसरे का कहना था कि हिंदुस्तान पर बाबर द्वारा कब्जा कर लेने के बाद इतिहास बदल गया। अब वह स्थान रामलला का नहीं रहा, अब वह नमाज अता करने की मस्जिद हो गई है। इसलिए यह सारा स्थान मुसलमानों को मिलना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी और यथास्थिति को बहाल कर दिया। उच्चतम न्यायालय को अब केवल यह फैसला करना था कि अयोध्या में स्थित यह जमीन किसकी है, राम लला की या मुसलमानों की। लेकिन अयोध्या में बाबरी ढांचे को सोलहवीं शताब्दी के बाद आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी बनाए रखने के पक्षकारों को लगा कि जब तक उच्चतम न्यायालय का 1994 का वह फैसला जिंदा रहेगा, तब तक बाबर के पुनः जिंदा होने की कोई संभावना नहीं है।

इसलिए सबसे पहले 1994 के उस फैसले को मारा जाए। इसी को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय से प्रार्थना की गई थी कि अयोध्या में रामलला के जन्मस्थान की भूमि के टाईटल के विवाद को लेकर लंबित विवाद को सुनने से पहले इस्माइल फारुखी वाले निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए उसे बड़े संवैधानिक बैंच के पास भेजा जाए और उस पर निर्णय आ जाने पर ही मूल टाइटल विवाद को छेड़ा जाए। सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो उच्च न्यायालय को यह भी कहा कि यह मामला ही 2019 के बाद सुना जाए। बहरहाल नए फैसले के बाद आशा है कि इस विवाद का कम से कम इक्कीसवीं शताब्दी में तो अंत हो जाना चाहिए।

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