संसद के आंतरिक मामले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं

संसद तथा कार्यपालिका

कभी-कभी ऐसा मान लिया जाता है और प्रायः कहा जाता है कि जैसे विधानमंडल का काम विधान बनाना और कार्यपालिका का काम उसे कार्यान्वित करना है, उसी तरह न्यायालयों का काम संविधान एवं विधियों की व्याख्या करना है। ऐसी धारणा बहुत ही भ्रामक एवं गलत है।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था में केवल न्यायपालिका ही व्याख्या नहीं करती। अनेक ऐसे  प्राधिकरण हैं, जो लगभग प्रतिदिन अपने कृत्यों का निर्वहन करते हुए वैधता से संविधान की व्याख्या करते हैं। उदाहरणार्थ संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को अपने विनिर्णय देते हुए, जो उनके अपने-अपने सदनों में अंतिम होते हैं, संविधान के उपबंधों की व्याख्या करनी पड़ती है। न्यायालयों का मूल कृत्य व्यक्तियों के बीच, व्यक्तियों और राज्यों के बीच, एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच तथा  संघ और राज्यों  के बीच विवादों का न्यायनिर्णय करना है और  न्यायर्णिय करते हुए न्यायालयों के लिए संविधान  तथा विधियों की व्याख्या करना अपेक्षित हो सकता है। और जो व्याख्या उच्च्तम न्यायलय द्वारा की जाती है वह विधान बन जाती है जिसे देश के सभी  न्यायलय मानते हैं।

उच्चतम न्यायलय के फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं है। वह तब तक कि स्वयं उच्चतम न्यायालय उस व्याख्या का पुनर्विलोकन न करे या उसको  बदल न दे या जब तक संसद का कोई अधिनियम न्यायपालिका द्वारा रद्द कर दिया जाता है, तो संसद उसकी ऐसी त्रुटियों को दूर करके, जिनके कारण वह रद्द किया गया हो, उसे फिर से अधिनियमित कर सकती है। इसके अतिरिक्त संसद अपनी संवैधानिक शक्तियों की सीमा में रहते हुए संविधान में ऐसी रीति से संशोधन कर सकती है जिससे कि वह कानून असंवैधानिक न रहे। भारतीय संसद इतनी सर्वशक्ति संपन्न नहीं है जितनी की ब्रिटिश संसद है जहां विधान के न्यायिक पुनर्विलोकन की अनुमति नहीं है। साथ ही, भारतीय न्यायपालिका इतनी सर्वशक्ति संपन्न नहीं है जितनी कि संयुक्त राज्य अमरीका की है जहां न्यायिक पुनर्विलोकन की कोई सीमा ही नहीं है।