मोदी के एजेंडे पर टालमटोल करती संस्थाएं

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

जैसा कि पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच कार्य-निष्पादन में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। हाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले जिससे स्थिति में कुछ सुधार हुआ अन्यथा कई लोग इस मसले को लेकर नुक्ताचीनी करने लग गए थे। सभी मसलों पर विचार हुआ है और मुख्य मसला यह है कि देश की आर्थिकी में बड़ा योगदान करने वाले तथा लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने वाले मध्यम व लघु उद्यमों को किस तरह फंड की व्यवस्था की जाए ताकि उन्हें जरूरत पड़ने पर ऋण आसानी से उपलब्ध हो सके…

यह देश के आर्थिक विकास को अस्थिर करने के बिल्कुल समान है कि इसकी संस्थाएं, जैसे न्यायपालिका तथा वित्तीय क्षेत्र का सर्वोच्च मानिटरिंग निकाय अर्थात भारतीय रिजर्व बैंक या सर्वोच्च अन्वेषण एजेंसियां एक देश की निर्वाचित सरकार के साथ भिड़ने की मुद्रा में हैं। समस्या निश्चित रूप से हमारे संविधान के साथ है, किंतु जब तक हम इस संविधान को हटाकर बेहतर समाधान नहीं ढूंढ लेते, तब तक इसी फ्रेमवर्क ढांचे के भीतर हमें कुछ हल निकालना होगा। जैसा कि पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच कार्य-निष्पादन में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। हाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले जिससे स्थिति में कुछ सुधार हुआ अन्यथा कई लोग इस मसले को लेकर नुक्ताचीनी करने लग गए थे। सभी मसलों पर विचार हुआ है और मुख्य मसला यह है कि देश की आर्थिकी में बड़ा योगदान करने वाले तथा लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने वाले मध्यम व लघु उद्यमों को किस तरह फंड की व्यवस्था की जाए ताकि उन्हें जरूरत पड़ने पर ऋण आसानी से उपलब्ध हो सके। अब चूंकि रिजर्व बैंक ने अपने नियमों को सरल कर दिया है तो लगता है कि यह विवाद सुलझ गया है। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि रिजर्व बैंक अथवा किसी अन्य संस्था की स्वायत्तता संविधान व सरकार के दायरे में ही हो सकती है क्योंकि इन संस्थाओं के प्रमुख कार्मिकों की नियुक्ति सरकार द्वारा ही होती है और वे विधानमंडल तथा सरकार के प्रति जवाबदेह होते हैं।

केवल न्यायपालिका ही ऐसी संस्था है जो किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं है क्योंकि यह अपनी नियुक्तियां स्वयं करती है तथा किसी के भी प्रति इसकी जवाबदेही नहीं बनती है। यह हमारी प्रणाली की एक बड़ी खामी है क्योंकि लोकतंत्र शक्तियों के बटवारे के साथ-साथ पारस्परिक सामंजस्य व उत्तरदायित्व के भी स्पष्ट विभाजन को अपरिहार्य बनाता है। न्यायिक जवाबदेही आयोग के तहत जिस जवाबदेही कानून की प्रस्तावना की गई थी, उसे एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है। रिजर्व बैंक एक सरकारी संस्था है तथा सरकार के प्रति जवाबदेह है। रिजर्व बैंक के अब तक जितने भी गवर्नर हुए हैं, उनके समय-समय पर सरकारों से मतभेद रहे हैं तथा इस तरह के संघर्ष का इतिहास लंबा है। वास्तव में यह लड़ाई ब्रिटिश राज में ही शुरू हो गई थी। वर्ष 1935 में ओसबोर्ने स्मिथ ब्याज विनिमय दर पर सरकार के साथ सहमत नहीं थे।

वर्ष 1953 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के वित्त मंत्री टीटी कृष्माचारी के सर बेंगाल राव के साथ मतभेद हो गए थे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने प्रधानमंत्री को वित्त मंत्री के खिलाफ एक पत्र दिया था क्योंकि वह उनसे संतुष्ट नहीं थे। वर्ष 1975 में जनन्नाथन ने क्रेडिट रेट को बढ़ाने से इनकार कर दिया था जैसी कि सरकार की चाहत थी। स्वयं मनमोहन सिंह, जो कि रिजर्व बैंक के गवर्नर थे, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से ज्यादा खुश नहीं थे, किंतु उन्हें सरकार ने समन्वय के प्रयास करते हुए योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया था। मनमोहन सिंह के बाद अन्य गवर्नरों को भी समस्या रही थी। आरएन मल्होत्रा की यशवंत सिन्हा, जो उस समय वित्त मंत्री थे, के साथ लड़ाई थी। वर्ष 2008 में सुब्बा राव की पी. चिदंबरम के साथ समस्या थी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक की भूमिका को सही ढंग से परिभाषित किया तथा सरकार से संबंधों की व्याख्या में भी उन्होंने ले-दे कर समाधान का विकल्प खोजा अर्थात उन्होंने दोनों के बीच समन्वय पर जोर दिया। रिजर्व बैंक सरकार की इच्छाओं की सीधी अनदेखी नहीं कर सकता और न ही वह वित्त मंत्री के प्रति कड़ा रुख अपना सकता है क्योंकि अंततः वही वरिष्ठ होता है। इस संबंध में हम अमरीकी अनुभव से काफी कुछ सीख सकते हैं तथा पारस्परिक रूप से जिम्मेदार तथा स्वतंत्र संस्थाओं का निर्माण कर सकते हैं। हम विधानपालिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के मध्य शक्तियों का पृथक्कीकरण सुनिश्चित कर सकते हैं और साथ ही रोको व संतुलन का सिद्धांत भी व्यवहार में ला सकते हैं। हमें इस तरह के मॉडल पर लंबे समय तक काम करना है। वर्तमान में सारा विवाद रिजर्व बैंक के पुनर्पूंजीकरण को लेकर है। कई लोग सोचते हैं कि बैंक के पास जो सरप्लस है वह सरकार को चुनाव के बाद मिलना चाहिए, न कि अभी ताकि वह वर्ष 2019 के चुनाव में फायदे न उठा सके। वास्तव में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने यह प्रचारित किया कि सरकार अपने राजस्व घाटे को पाटने के लिए रिजर्व बैंक से सरप्लस के रूप में राशि लेना चाहती है ताकि तारगेट पर बैंक ही रहे। उधर सरकार ने इस तरह की राशि की मांग से इनकार किया है। किंतु अगर बैंक का तर्कसंगत पूंजीकरण होता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है तथा हर बात का राजनीतिकरण क्यों किया जाए? सरकार ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि जहां तक राजस्व घाटे का संबंध है, वह ‘डॉट’ पर है। सरकार को निश्चित रूप से लघु व मझौले उपक्रमों के विकास के लिए धन की आवश्यकता है ताकि बेरोजगारों के लिए काम पैदा किया जा सके।

अब अगर राजनीतिक दल अर्थव्यवस्था के विकास तथा रोजगार सृजन के लिए सरकारी धन के उपयोग को लेकर ही विवाद खड़ा करते हैं तो यह कोई तर्कसंगत बात नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त मात्रा में रिजर्व्स हैं तथा उसकी कोई देनदारी भी नहीं है। विमुद्रीकरण के नकारात्मक प्रभाव अब दूर होते जा रहे हैं तथा सकल घरेलू उत्पाद में 1.5 फीसदी का घाटा 2-3 फीसदी घाटे के उस अनुमान के आगे कुछ भी नहीं है जैसा कि विनाश के पैगंबर वर्तमान अर्थव्यवस्था के बड़े विनाश की बात कर रहे हैं। विश्व बैंक या वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की अर्थव्यवस्था को प्रगतिशील के रूप में परिगणित किया है, इसलिए हमें जीएसटी व विमुद्रीकरण के दीर्घावधि लाभों को दरकिनार कर सकल घरेलू उत्पाद के थोड़े से घाटे को लेकर व्यथित नहीं होना चाहिए। हमें केवल राजनीति के बजाय राष्ट्र हित में सोचना चाहिए।

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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