पांच वर्ष जप से अणिमा की प्राप्ति

पांच वर्ष पर्यंत जप करते रहने से अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति होती है और छह वर्ष तक एक पाद पर स्थिरहोकर ऊर्ध्व बाहु किए जप करने से इच्छा-रूप (जैसावेश बनाने की इच्छा होवे वैसा ही रूप धारण कर लेना), हो जाता है…

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पंचभिर्बत्सरै रेवमणिमादियुतो भवेत।

एवं षड्बत्सर जप्त्वा कामरूपित्वमाप्नुयात। 61।

पांच वर्ष पर्यंत जप करते रहने से अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति होती है और छह वर्ष तक एक पाद पर स्थिर होकर ऊर्ध्व बाहु किए जप करने से इच्छा-रूप (जैसा वेश बनाने की इच्छा होवे वैसा ही रूप धारण कर लेना), हो जाता है।

सप्तभिर्बत्सरैरे वममरत्वमवाप्नयात।

मनुत्व-सिद्धिर्नवर्भिरिंद्रत्वं दशर्भिर्भवेत। 62।

सात वर्ष तक जप करने से अमरता प्राप्त होती है।

अर्थात देवयोनि मिल जाती है। नौ वर्ष पर्यंत जप करने से मनु की पद्वी और दस वर्ष में इंद्रासन ही मिल जाता है।

एकादशभिराप्नोति प्राजापत्य तु बत्सरैः।

ब्रह्मत्वं प्राप्नुयादेव जप्त्वा द्वादश बत्सरान। 63।

ऐसे एक आसन के सहारे ग्यारह वर्ष तक जप किया जाए तो मनुष्य प्रजापति के भाव को प्राप्त कर लेता है और बारह वर्ष पश्चात तो ब्रह्मपद को ही प्राप्त कर लेता है।

एतेनैव जिता लोकास्तपसा नारददिभिः।

शाकमन्येअपरे मूल फलमन्ये पयोअपरे। 64।

इसी तप से नारद जी आदि ऋषियों ने संपूर्ण लोकों को जीत लिया था, जिसमें कुछ शाकाहारी थे, दूसरे कंद भोजी, कुछ फल खाने और कुछ दूध पर निर्भर रहते थे।

घृत्यमन्येअपरे सोमपरे चरूवृत्तयः।

ऋषयः भैक्ष्यमश्नंति केचिद् भौक्षाशिनोअहनि। 65।

कुछ घृताहारी, दूसरे सोमपान करने वाले और कुछ ऐसे थे जो भिक्षान्न पर ही निर्वाह करते थे।

हविष्यमपरेअश्नंतः कुर्वन्त्येव पर तपः।

अथ शुद्ध ये रहस्याना त्रिस्हस्त्र जपेद् द्विजः। 66।

कुछ लोग हविष्य को खाते हुए महान जप करते थे। द्विज को पापों के निवारणार्थ तीन सहस्र जप करना चाहिए।

मासं शुद्धो भवेत्स्तेयात्सुवर्णस्य द्विजोत्तमः।

जपेनन्मास त्रिसहस्र संरापः शुद्धिमाप्नयात। 67।

यदि किसी द्विज के द्वारा सुवर्ण चुरा लिया गया होता तो इस पाप से मुक्ति होने के लिए एक मास पर्यंत जप करना चाहिए। जिस द्विज ने मदिरा पान कर लिया हो तो उसे पूरे एक मास पर्यंत 3000 मंत्र प्रतिदिन जप करना चाहिए।

मासं जपेत त्रिसहस्र शुचिः स्याद् गुरुतल्पगः।

त्रिसहस्र जपेन्मासं कुटीं कृत्या वने वसन। 68।

ब्रह्महत्योद्भावात्पापान्मुक्तिः कौशिकभाषितम।

द्वादशाह निमज्याप्सु सहस्र प्रत्यह जपेत। 69।15