मिट्टी बचेगी, तो देश बचेगा

वसंत फुटाणे

स्वतंत्र लेखक

विदर्भ के वर्धा जिले का काकडदरा गांव एक समय जंगल काटकर लकड़ी बेचने वाला, महुआ से शराब बनाकर बेचने वाला, कर्ज में डूबा गांव था, जो आज पेड़ लगाकर जंगल हरा-भरा कर रहा है। अपनी पथरीली जमीन को उन्होंने कंटूर बंडिंग द्वारा उपजाऊ बनाया है। उस जमीन से वे पर्याप्त दाना-पानी पाते हैं। काकडदरा कभी अकाल तथा अभावग्रस्त गांव था, आज वह इज्जत की रोटी खा रहा है। उनका समाज के प्रति सहयोग का भाव भी जागृत है। किल्लारी भूकंपग्रस्तों के लिए उन्होंने अपने श्रमदान के पैसे राहत कोष के लिए भेजे थे। आत्मनिर्भर काकडदरा गांव एक नमूना है, अन्य गांव इसी दिशा में चल पड़ें, तो परावलंबी भारत की तस्वीर बदल जाएगी…

बंजर भूमि का देश अपनी आजादी कैसे बचा पाएगा, यह सवाल महाराष्ट्र, यवतमाल के एक किसान सुभाष शर्मा पूछ रहे हैं। शर्मा पुराने जैविक किसान हैं, कई वर्षों के अनुभव से उन्होंने मिट्टी का महत्त्व जाना-समझा है। अन्न सुरक्षा तथा सुरक्षित अन्न के लिए मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाए रखना देश का प्रथम कर्त्तव्य बनता है किंतु आधुनिक कृषि व्यवस्था रसायन पर ही जोर देती है, मिट्टी के स्वास्थ्य को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जाता है, यह चिंता का विषय है। वैश्विक अन्न तथा कृषि संगठन भी इस विषय को लेकर चिंतित है। वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय मृदा वर्ष मनाने का आह्वान उन्होंने किया था। बाद में अपेक्षित कार्य नहीं होने के कारण इसे 2024 तक बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय मृदा वर्ष दशक घोषित किया गया। तीन साल बीत गए, भारत में केवल मृदा स्वास्थ्य कार्ड छोड़कर अब भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है।

अन्न सुरक्षा ही नहीं, जलसंवर्धन भी मिट्टी के साथ जुड़ा है। खेतों में कंटूर बंडिंग द्वारा मृदा के साथ-साथ वर्षा जल संवर्धन भी अपने आप सधेगा। हवा, पानी, मिट्टी जीवन के मूलाधार हैं, उनकी हिफाजत करना सभी का फर्ज है। किंतु अति आधुनिक तकनीक के इस जमाने में मूलभूत बातों को नजरअंदाज किया जाता है। आज हमारा देश मरुभूमि बनने जा रहा है। कुल 32 करोड़ 87 लाख हैक्टेयर भूमि में से 9 करोड़ 64 लाख हेक्टेयर भूमि अत्यंत बुरी अवस्था में है। मिट्टी की उपजाऊ परत वर्षा जल के साथ बह जाना इस बदहाली का प्रमुख कारण है। भारत में हर साल 53 करोड़ 34 लाख टन मिट्टी इसी तरह बह जाती है। हरित आवरण नष्ट होना, खेतों की गहरी जुताई, जमीन में जैविक पदार्थों की कमी, कृषि रसायनों का बेहिसाब इस्तेमाल आदि कारणों से भूक्षरण होता है। खेतों में कंटूर बंडिंग से मिट्टी तथा बारिश का प्रभावी ढंग से संवर्धन किया जा सकता है। कंटूर बोआई से भूमि में नमी बनी रहती है, जिससे फसल का विकास अच्छी तरह होता है। कंटूर बोआई से उपज में बढ़ोतरी होती है। विदर्भ के किसानों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है। कंटूर बोआई का तंत्र लोकप्रिय बनाने के लिए किसानों के खेतों पर ही प्रत्यक्ष आयोजन जरूरी है। इससे उसकी आय में पहले ही साल बढ़ोतरी तो होगी ही, साथ-साथ भू-जल भी बढ़ेगा।

फसलों के जैविक अवशेष जमीन का भोजन हैं। उन्हें जलाना खेत के बाहर कर देना एकदम गलत है। मनुष्य के शरीर में खून का जो स्थान  है, वही जमीन में जैविक पदार्थ का मानना होगा। जैविक पदार्थ मिट्टी के कणों को बांध कर रखते हैं, जिससे भू-क्षरण रुकता है। मिट्टी बनाने तथा बचाने में वृक्षों की भूमिका अहम है। वृक्षों की पत्तियों द्वारा जमीन को विपुल मात्रा में जैविक पदार्थ प्राप्त होते हैं। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश पत्तियों पर ही रुक जाती है। हवा के हलके झोंकों के साथ बूंद-बूंद नीचे आकर भू-जल में परिवर्तित होती है। वृक्ष के नीचे केंचुए अधिक सक्रिय होते हैं। वे जमीन की सछिद्रता बढ़ाते हैं। इस कारण वर्षा अधिक मात्रा में भू-जल में परिवर्तित होती है। वृक्ष जमीन से जितना लेते हैं, उससे कई ज्यादा जमीन को जैविक पदार्थों के रूप में लौटाते हैं। वृक्ष हमें भोजन, पानी, समृद्ध भूमि तथा सही पर्यावरण प्रदान करते हैं। खेतों में कंटूर बंडिंग तथा बोआई का प्रशिक्षण जैविक पदार्थों का व्यवस्थापन सिखाना जरूरी है। पढ़े-लिखे लोग भी जैविक पदार्थों के महत्त्व को नहीं समझते हैं और उन्हें जला देते हैं। इससे दोहरी हानि होती है। जैविक पदार्थ तो नष्ट होते ही हैं, हवा में जहरीली कार्बनिक गैसों की बढ़ोतरी भी होती है। जैविक पदार्थों का सही व्यवस्थापन अगर होता है तो कृषि क्षेत्र में पर्यावरण हितैषी क्रांति हो सकती है।

जैविक पदार्थ के लिए जन जागरण आवश्यक है।  खाद्य फसलों के कारण कई बार जमीन का शोषण होता है। किंतु पेड़ जमीन को वापस समृद्ध बनाते हैं।  ऊसर, बंजर भूमि को सुजलाम-सुफलाम बनाने के प्रयास कई जगह सफल भी हुए हैं। महाराष्ट्र के रालेगन सिद्धि, हिवरे बाजार तो मशहूर हैं ही। विदर्भ के वर्धा जिले का काकडदरा गांव एक समय जंगल काटकर लकड़ी बेचने वाला, महुआ से शराब बनाकर बेचने वाला, कर्ज में डूबा गांव था, जो आज पेड़ लगाकर जंगल हरा-भरा कर रहा है। अपनी पथरीली जमीन को उन्होंने कंटूर बंडिंग द्वारा उपजाऊ बनाया है। उस जमीन से वे पर्याप्त दाना-पानी पाते हैं। एक जमाने में गांव में पेयजल की काफी कमी थी, एक बार आग लगने पर पूरा गांव भस्म हो गया था। घास-फूस के मकान थे, आग बुझाने को पानी कहां से लाते? किंतु आज सामूहिक श्रमकार्य से गांव की शक्ल बदल गई है। इस पराक्रम में महिलाओं का विशेष योगदान है। मधुकर खडसे नामक इंजीनियर के मार्गदर्शन में 1980 के दशक में मृदा तथा जल संवर्धन कार्य काकडदरा में शुरू हुआ था। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की उनकी पद्धति शुरू से ही रही थी। संपूर्ण क्षेत्र में कंटूर बंडिंग तथा पत्थर के बांध बनाए गए। इससे भूजल बढ़ा, खेती की उपज भी लक्षणीय बढ़ी है। सामूहिक श्रम से कुंआ खोदा गया, मिट्टी का तालाब भी गांव वालों ने अपने श्रम से बनाया । आज सीमित मात्रा में क्यों न हो, कुछ जमीन में सिंचाई भी हो रही है। यह गांव अपने श्रम के बल पर विकास कर रहा है। श्रमशक्ति के द्वारा ही उन्होंने पानी फांउडेशन के वाटर कप प्रतियोगिता-2017 का प्रथम पुरस्कार अपने नाम किया है। गांव के अनपढ़, श्रमजीवी अपनी समझ के अनुसार काम कर रहे हैं। कुछ कमी तो होगी ही, लेकिन धीरे-धीरे उनकी पूर्ति हो सकती है। काकडदरा कभी अकाल तथा अभावग्रस्त गांव था, आज वह इज्जत की रोटी खा रहा है। उनका समाज के प्रति सहयोग का भाव भी जागृत है। किल्लारी भूकंपग्रस्तों के लिए उन्होंने अपने श्रमदान के पैसे राहत कोष के लिए भेजे थे। आत्मनिर्भर काकडदरा गांव एक नमूना है, अन्य गांव इसी दिशा में चल पड़ें, तो परावलंबी भारत की तस्वीर बदल जाएगी। देश को बचाने के लिए पहले उसकी मिट्टी को बचाना होगा। देश का अस्तित्व मिट्टी से गहरा नाता रखता है। इसलिए इस दिशा में पहल होनी चाहिए।