छिंज और बल्टोहियों के लिए प्रसिद्ध है गंगथ

रियासतों के अस्त्र-शस्त्र, लॉकर व कुट्ट की कमाई के बदले में बल्टोही बनाने के काम का मुनाफा ज्यादा था। बाद में पीतल के काम की तरफ इन का रुझान बढ़ने लगा था। आज भी लोग यहां दूर-दूर से पीतल की बल्टोहियां लेने आते हैं…..

गतांक से आगे …

इमर्सन गृह

भिन्न रूप से दिखने वाला इमर्सन हाउस भवन स्लेट की छतों से युक्त, शीशे लगे मोड़दार लकड़ी के बरामदे और ऊंचे कमरे मंडी नगर को एक स्पष्ट आभा प्रदान करते हैं, जो अन्यथा नगर भर में  कंकरीट के जंगलों के कारण खोेती जा रही है।  मंदिरों के नगर के दिल में बने हुए 97 वर्ष पुराने इमर्सन हाउस भवन को जीवन का एक नया पट्टा प्रदान किया गया है, क्योंकि इसमें शिमला गेयटी थियेटर की तर्ज पर स्लेट की छतों की पहाड़ी शैली को पुनर्जीवित किया गया है।

गंगथ

श्री बाबा क्यालू सिद्धपीठ गंगथ शहर का इतिहास लगभग पांच सौ वर्ष पुराना है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले यह शहर छौंछ खड्ड कि किनारे पांच किलोमीटर में बसा हुआ था और उस समय से यहां कारीगरों का एक बड़ा समूह रहता था, जो पंदोड़ गांव तक फैला था। लगभग 200 वर्ष पूर्व यहां अस्त्र-शस्त्र का निर्माण, जेवर रखने वाले लॉकर, कुट्ट और पीतल के बरतन बनाए जाते थे, जो पंजाब व चंबा से होते हुए जम्मू तक भेजे जाते थे। उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद की तर्ज पर गंगथ को छोटा मुरादाबाद कहा जाता था। 50 किलोमीटर के दायरे में मात्र यही एक ऐसा शहर था, जिसे स्थानीय बोली में ‘भांडेयां आला शैर’ कहा जाता था। बुर्जुग आज भी इसे इसी नाम से पुकारते हैं। 200 साल पहले यहां कारीगरों का काम बहुत ऊंचे स्तर का था। उस वक्त यह एक मुस्लिम समुदाय बहुल क्षेत्र था।

उन दिनों हिंदू आबादी नाममात्र की थी। जो हिंदू कारोबार भी करते थे, उनके पास मुस्लिम ही मुख्य कारीगर होते थे। आज भी सुनने में आता है कि पुरानी आबादी की जगह पर  जब नए निर्माण के लिए खुदाई की जाती है, तो काफी सोना, चांदी निकलता है। इन चर्चाओं से आभास होता है कि उन दिनों ये लोग काफी संभ्रांत थे।  कांगड़ी धाम के लिए वर्षों पहले से पीतल की बल्टोहियों का अपना महत्त्व था। 100 वर्ष पहले तक जिस घर में जितनी ज्यादा बल्टोहियां होती थीं, उसे उतना ही अमीर व खानदानी आदमी समझा जाता था। रियासतों के अस्त्र-शस्त्र, लॉकर व कुट्ट की कमाई के बदले में बल्टोही बनाने के काम का मुनाफा ज्यादा था। बाद में पीतल के काम की तरफ इन का रुझान बढ़ने लगा था। आज भी लोग यहां दूर-दूर से पीतल की बल्टोहियां लेने आते हैं।