भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

सीबीआई व आरबीआई के मामले में सरकार प्रभावशाली ढंग से काम नहीं कर पाई। सरकार ने भ्रष्टाचार से लड़ने की प्रतिबद्धता तो दिखाई, किंतु इस लड़ाई को वह प्रभावशाली तरीके से नहीं लड़ पाई। शासन में कमियों के कारण झंझट पर झंझट खड़े होते गए जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई और विपक्ष को अपने पक्ष में प्रचार करने का मौका मिल गया। यह बेहतर होता अगर सरकार इस लड़ाई को विशेषज्ञों तथा सक्षम सलाहकारों की टीम के जरिए लड़ती। सरकार को इन दोनों मामले में प्रोफेशनल तरीके से निपटना चाहिए था। यह बिल्कुल उचित समय है जब सरकार को सीबीआई की कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए बड़ी पहल करनी चाहिए…

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार देश से भ्रष्टाचार हटाने के प्रति कटिबद्ध लगती है, किंतु वस्तुस्थिति से प्रभावशाली तरीके से निपटने को लेकर संदेह पैदा हो रहे हैं। कोई सा भी मामला उठा कर देखें तो अच्छे इरादे के बावजूद प्रशासन की बड़ी गलतियां व निरर्थक प्रयास सामने हैं। मोदी पारदर्शिता लाने तथा भ्रष्टाचार को मिटाने के मसले पर सत्ता में आए थे। उन्होंने कई निर्भीक कार्रवाइयां की हैं तथा भ्रष्टाचार से निपटने के लिए प्रणाली का निर्माण भी किया है, किंतु वह काले धन की पूरी प्रक्रिया तथा इससे कैसे निपटा जाए, इसको लेकर अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। काले धन के खिलाफ सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो था जिसने भ्रष्टाचार को ट्रेस किया जो कि काले धन तक पहुंच बना सकता है। यह आरोप लग रहे हैं कि इस संस्था का उन राजनेताओं को घेरने के लिए प्रयोग किया जा रहा है जो सत्ता के विरोध में हैं। सीबीआई में वर्तमान में चल रहा विवाद दिखाता है कि यह संस्था कितनी कमजोर है। इस संस्था के दो उच्च अधिकारी आपस में ही भिड़ रहे हैं तथा एक-दूसरे पर लाखों रुपए के घोटालों के आरोप लगा रहे हैं। वह संस्था जो भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करती है, अगर वही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हो तथा इसके दो उच्च अधिकारियों की ईमानदारी पर सवाल उठ रहे हों, तो उस स्थिति में इस संस्था पर विश्वास कैसे किया जा सकता है? दो बड़ी संस्थाएं, जो देश के वित्त व अखंडता के लिहाज से महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं, पर विवादों का साया रहा है, भले ही मोदी के शासन को उसकी साफ-सुथरी छवि तथा पारदर्शिता के लिए जाना जाए। भारतीय रिजर्व बैंक के मामले में भी रघुराम राजन ने अपनी कार्यावधि पूरी की तथा उन्हें सेवा विस्तार नहीं दिया गया, हालांकि उनके पक्ष में मीडिया में अभियान भी चला। वह पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिंदबरम के निकट माने जाते हैं तथा उन्हें सेवा विस्तार का आश्वासन दिया गया था। लेकिन केंद्र में सरकार बदल गई और उन्हें जाना पड़ा। मोदी ने यहां भी गलती की तथा वह संस्था के गवर्नर पद पर अपने विश्वस्त को नहीं बैठा पाए। ऐसा करने के बजाय मोदी सरकार ने वरिष्ठता के नियम के आधार पर डिप्टी गवर्नर को पदोन्नत कर दिया।

यह नियुक्ति भी खटास वाला मामला सिद्ध हुआ क्योंकि रघुराम राजन के उत्तराधिकारी के रूप में उर्जित पटेल के सरकार से मतभेद हो गए तथा विवादों के बीच उन्होंने पद छोड़ दिया जिससे रघुराम राजन को फिर से मोदी सरकार पर हमला करने का अवसर मिल गया। सीबीआई की कहानी इससे भी बुरी है। वैधानिक व्यवस्था के अनुसार तीन सदस्यीय कमेटी ने आलोक वर्मा को इसका निदेशक नियुक्त किया, जबकि विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस नियुक्ति का विरोध किया। जब उन्हें हटाया गया तो विपक्ष के नेता ने फिर आपत्ति जताई। यहां संभावना थी कि विपक्ष आपत्ति करेगा, किंतु यहां तीसरे सदस्य का महत्त्व था जो कि भारत के प्रधान न्यायाधीश थे। परंतु इस मामले में प्रधान न्यायाधीश ने स्वयं को इस मसले से अलग रखा और आश्चर्यजनक ढंग से अपनी जगह एके सीकरी को भेज दिया। कमेटी ने आलोक वर्मा को अग्नि सेवाओं में तबदील कर दिया, जिसे उन्होंने ज्वाइन नहीं किया, बल्कि इसके विपरीत इस्तीफा दे दिया। अब इस स्थिति में विपक्ष, खासकर कांग्रेस ने यह शोर मचाना शुरू कर दिया है कि आलोक वर्मा राफेल विमान सौदे में कथित घोटाले की जांच शुरू करने वाले थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया। यह निश्चित ही झूठ है क्योंकि सीबीआई के अधीन रक्षा सौदे का न्यायिक क्षेत्राधिकार नहीं है तथा सभी संदेहों को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले ही सरकार को क्लीन चिट दे दी है। आलोक वर्मा, जिन्हें संस्था में विवाद की स्थिति में जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया था, के मामले में कोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें उनके पद पर बहाल कर दिया जाए, हालांकि वह नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते थे। उनके मामले का निपटारा करने का अधिकार तीन सदस्यीय कमेटी को दिया गया जिसने उन्हें इस पद से हटा दिया। सरकार की गलतियों का विपक्ष ने खूब फायदा उठाया और वह अपने पक्ष में प्रचार करने में सफल रहा, हालांकि आम जनता को यह मालूम नहीं है कि क्या सच है अथवा क्या झूठ है? एक अन्य गलती एके सीकरी की तीन सदस्यीय कमेटी में नियुक्ति को लेकर हुई। उनकी नियुक्ति पर जब पहले से ही सरकार की ओर से राष्ट्रमंडल के लिए होने पर विचार चल रहा था, उस स्थिति में उन्हें इस कमेटी में नहीं भेजा जाना चाहिए था। मुख्य न्यायाधीश की गलती है कि उन्होंने आलोक वर्मा के मामले में झमेले में पड़ने से अपने आप को बचा लिया तथा इसमें एके सीकरी को भेज दिया।

हालांकि सीकरी ने राष्ट्रमंडल में अपनी नियुक्ति को स्वीकार नहीं किया है, लेकिन इस प्रक्रिया में विपक्ष को फिर अपने पक्ष में प्रचार करने का मौका मिल गया। अब तक विपक्ष कोई ऐसा प्रमाण पेश नहीं कर पाया है जिससे यह साबित हो कि सरकार किसी घोटाले में संलिप्त है। वह बार-बार झुठ बोल कर झूठ को ही सच साबित करने की कोशिश कर रहा है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि सीबीआई व आरबीआई के मामले में सरकार प्रभावशाली ढंग से काम नहीं कर पाई। सरकार ने भ्रष्टाचार से लड़ने की प्रतिबद्धता तो दिखाई, किंतु इस लड़ाई को वह प्रभावशाली तरीके से नहीं लड़ पाई। शासन में कमियों के कारण झंझट पर झंझट खड़े होते गए जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई और विपक्ष को अपने पक्ष में प्रचार करने का मौका मिल गया। यह बेहतर होता अगर सरकार इस लड़ाई को विशेषज्ञों तथा सक्षम सलाहकारों की टीम के जरिए लड़ती। सरकार को इन दोनों मामले में प्रोफेशनल तरीके से निपटना चाहिए था। यह बिल्कुल उचित समय है जब सरकार को सीबीआई की कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए बड़ी पहल करनी चाहिए क्योंकि इसका अपने सृजन को लेकर ही कोई कानून नहीं है, बल्कि यह दिल्ली पुलिस विधान के तहत काम कर रही है।

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