संस्कारों की दहलीज से गुजरे शिक्षा

किशन चंद चौधरी

लेखक, बड़ोह से हैं

भले ही परिवेश बदल रहा है, सभ्यता बड़ी तीव्र गति से सिमट रही है, फिर भी हमें भविष्य को संवारना होगा। बच्चों को संस्कारित करना और उनमें मानवीय गुणों का समावेश करना अभिभावकों एवं शिक्षकों की नैतिक जिम्मेदारी है, क्योंकि वे बच्चों के सबसे बड़े संरक्षक एवं मार्गदर्शक होते हैं। किशोरावस्था में ही विवेक और समझदारी को सीखने की आयु होती है। सभ्यता और विकास के चार कदम बढ़ाने हैं, तो संस्कारों के दो कदम पीछे मुड़कर देखना होगा…

आज मानव जीवन में व्यस्तता बढ़ रही है तथा उसका भौतिकवादिता की ओर रुझान बढ़ रहा है। जीवन मूल्यों में निरंतर बदलाव आ रहा है और अपनी सुख-सुविधाओं की पूर्ति के लिए  व्यक्ति असामाजिक एवं गैर कानूनी कार्यों को भी अंजाम देने में थोड़ा भी हिचकिचाता नहीं है। आज सामाजिक ढांचा इस प्रकार से तैयार किया जा रहा है, जिसमें संस्कारों की सीख देने का समय किसी के पास बचा ही नहीं है। इसके कारण युवा हताश-निराश और तनाव से गुजर रहा है और नशे की ओर प्रवृत्त हो रहा है। मानव पैसे की अंधी दौड़ में इतना उलझा है कि वह अपनी संतान के लिए समय ही नहीं निकाल पा रहा है और न ही बच्चों को संस्कारों की सीख दे पा रहा है।

आज समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली विघटित हो रही है। एकल अथवा द्विसंतानों की धारणा भले ही आज आदर्श हो, परंतु उनके लिए मां-बाप का अतिशय लाड़, प्यार उन्हें हद से ज्यादा जिद्दी एवं मेरा-मेरा की भावना से बहुत ज्यादा ओत-प्रोत कर रहा है। एक वह जमाना था जब दादा-नाना परने के कोने में छोटी सी पुडि़या में मिठाई बांधकर लाते थे तथा आठ-दस बच्चों में बांटते थे और सभी दो-चार दाने लेकर संतुष्ट हो जाते थे। आज बच्चा पूरे पैकेट को पा कर मेरा कहकर अधिकार जमाता है। कोई जमाना था, जब पूरा गांव अथवा वेहड़ा ही आंगन होता था। आज अपना कमरा, टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल ही अपना है।

आज मिल बांटकर खाने तथा साथ रहने की संस्कृति समाप्त हो रही है। वर्तमान समय में माता-पिता अपने बेटे-बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवा रहे हैं, किंतु गृह कार्य के साथ-साथ संस्कार प्रदान नहीं करते। ऐसी संतानें समाज में अपना कोई योगदान नहीं दे पाती हैं। यदि बेटा संस्कारी नहीं, तो वह कुल-परिवार का उद्धार नहीं कर सकता। यदि बेटी संस्कारित नहीं है, तो मां-बाप के लिए सिरदर्द का कारण बनती है। यदि उस बेटी की सच-झूठ कहकर तारीफों के पुल बांधकर शादी किसी परिवार में कर दी जाती है, तो वह अगले घर जाकर भी कलह-कलेश का कारण बनती हुई समस्याएं ही उत्पन्न करती है। यदि शिक्षित, गृह कार्यों में दक्ष और संस्कारित बहू किसी परिवार को मिलती है, तो उस घर के बराबर भाग्यशाली कोई परिवार नहीं होता। पहले जी का संबोधन लगाना, जहां संस्कारों की बात थी, वहीं पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करने का आनंद ही कुछ और था। आज सब कुछ मानो औपचारिक सा बनता जा रहा है और सब कुछ ही पाश्चात्य अंदाज में हेलो-हाय में सिमटता जा रहा है। नाम से संबोधित करना फैशन बनता जा रहा है। आज पैसे की भूख व्यक्ति के भीतर इस कद्र बढ़ गई है कि सब कुछ पा लेने की होड़ में सरपट दौड़ रहा है, वह यह नहीं सोचता है कि ‘सामां सौ वरस का पत्ता नहीं भर का।’ इतना उलझ गया है कि उसे परहित अथवा लोक कल्याण और जनभावनाओं के साथ-साथ राष्ट्रहित की बात सोचने की भी फुर्सत नहीं है। भले ही परिवेश बदल रहा है, सभ्यता बड़ी तीव्र गति से

सिमट रही है, फिर भी हमें भविष्य को संवारना होगा। बच्चों को संस्कारित करना और उनमें मानवीय गुणों का समावेश करना अभिभावकों एवं शिक्षकों की नैतिक जिम्मेदारी है, क्योंकि वे बच्चों के सबसे बड़े संरक्षक एवं मार्गदर्शक होते हैं। किशोरावस्था में ही विवेक और समझदारी को सीखने की आयु होती है।

सभ्यता और विकास के चार कदम बढ़ाने हैं, तो संस्कारों के दो कदम पीछे मुड़कर देखना होगा। मन में संतुष्टि की भावनाओं को भी स्थान देना होगा और सामाजिक प्राणी के नाते संस्कारित बनकर समाज एवं राष्ट्र के प्रति भी अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होगा। शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ संस्कारों की सीख लेना अति आवश्यक है, तभी हम समाज, प्रदेश एवं राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निभाते हुए आदर्श एवं संस्कारिक नागरिक सिद्ध होंगे।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।           -संपादक