कश्मीर में आसान नहीं एक साथ लोकसभा-विधानसभा चुनाव, चुनाव आयोग के फैसले के पीछे पुख्ता वजह

लोकसभा चुनाव 2019 की तारीखों का ऐलान हो गया है. इसी के साथ सवाल भी उठने लगे हैं. सबसे ज्यादा सवाल जम्मू-कश्मीर में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव ना कराने पर पूछे जा रहे है. घाटी में मुख्यधारा के सभी सियासी दलों ने चुनाव आयोग से पूछा है कि जब लोकसभा चुनाव कराने का माहौल है, तो विधानसभा के लिए क्यों नहीं? लेकिन जानकारों की मानें तो आज के माहौल में विधानसभा चुनाव कराना मुश्किल होता.नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि सभी दल चाहते हैं कि राज्य में एकसाथ (लोकसभा और विधानसभा) चुनाव हों. लोकसभा चुनाव के लिए माहौल सही है तो फिर राज्य के चुनाव के लिए क्यों नहीं? स्थानीय चुनाव यहां शांति पूर्ण ढंग से संपन्न हुए, घाटी में पर्याप्त सुरक्षाबल तैनात है, फिर भी राज्य के चुनाव क्यों नहीं कराए जा रहे? वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि लोगों को सरकार का चुनाव नहीं करने देना लोकतंत्र के विचार के खिलाफ है. इसके अलावा एक एजेंडे के तहत लोगों को अलग-थलग करने के लिए समय लेने की रणनीति पर काम किया जा रहा है जो उनके (केंद्र सरकार) परोक्ष उद्देश्यों के अनुरूप है.चुनाव आयोग ने सुरक्षा का हवाला देते हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव नहीं कराने का फैसला लिया है. इससे पहले चुनाव आयोग की एक टीम जम्मू-कश्मीर में हालात का जायजा लेने गई थी. वरिष्ठ पत्रकार और जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले राहुल जलाली का कहना है कि पुलवामा आतंकी हमले के बाद जो कार्रवाई हो रही है, इससे एक सिलसिला शुरू हुआ है. इसे रोक कर विधानसभा चुनाव कराने में दिक्कत आ सकती है. लोकसभा के मुकाबले विधनसभा चुनाव में ज्यादा उम्मीदवार होंगे ऐसे में आज के माहौल में सभी को सुरक्षा देने में मुश्किल हो सकती थी. बता दें कि जम्मू-कश्मीर में लोकसभा की 6 सीट और विधानसभा की 87 सीटे हैं.जेएनयू के प्रोफेसर अमिताभ मट्टू का मानना है कि सुरक्षा कारणों से राज्य की 87 सीटों पर विधानसभा चुनाव में मुश्किल आ सकती है. लिहाजा चुनाव आयोग एक बार में एक कदम उठाना चाहता है. मसलन पहले लोकसभा चुनाव कराकर देख लें, अगर स्थिति ठीक रही तो आगे विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे. प्रो. अमिताभ मट्टू का कहना है कि राज्य में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार होती तो अच्छा होता. लेकिन अगर मतदान का प्रतिशत बहुत कम होता जिसकी उम्मीद ज्यादा है तो विधानसभा चुनाव एक मजाक बनकर रह जाता जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा की पार्टियां विधानसभा चुनाव ना कराने के फैसले को लोकतंत्र की हार के तौर पर पेश कर रही है. ऐसे में वरिष्ठ पत्रकार राहुल जलाली का कहना है कि ये वही दल हैं जिन्होंने पंचायत चुनाव का बहिष्कार किया था, तब इन्हें लोकतंत्र की याद क्यों नहीं आई. दशकों से सत्ता में रहने वाले ये दल अब तक 73वां और 74वां संशोधन भी लागू नहीं करवा पाए. जिसके तहत पंचायतों और निकायों को ताकत मिलती. जबकि चुनाव आयोग ने रविवार को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि राज्य में पंचायत चुनाव होने के बावजूद चुने हुए प्रतिनिधि सुरक्षा कारणों से सरकारी बंगलों में रहने को मजबूर हैं.हाल के दिनों में घाटी में अलगाववादी ताकतों के खिलाफ लगातार कार्रवाई हो रही है. ये वही ताकते हैं जो जनता को लोकतांत्रिक प्रकिया में शामिल न होने के लिए प्रेरित करती थीं. राहुल जलाली का मानना है कि अलगाववादियों पर कार्रवाई का असर जल्द नहीं दिखेगा क्योंकि इनकी प्रशासन, स्कूल और अन्य संस्थाओं में पैठ है. लिहाजा इसका असर दिखने में 5 से 6 महीने लग सकते हैं. लेकिन सरकार और सियासी दलों को अलगाववादियों के विकल्प पर भी गंभीरता से विचार करना होगा.राहुल जलाली का मानना है कि चुनाव आयोग को विधानसभा चुनाव के लिए कुछ इशारा जरूर देना चाहिए था. अगर चुनाव आयोग एक संभावित समय सीमा बता देता तो शायद यह विवाद नहीं होता जो आज हो रहा है.