जलियांवाला बाग से उठी ज्वाला

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

पूरे तीन साल बाद मार्च 1922 को ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट को वापस ले लिया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जलियांवाला बाग में जब शांतिप्रिय जनता पर डायर की सेना गोलियों की बौछार कर रही थी, तो उस भीड़ में एक अनाथ बालक ऊधम सिंह भी था। उसने यह सारा नरसंहार अपनी आंखों से देखा था। उसने जलियांवाला नरसंहार का बदला लेने का निर्णय कर लिया…

आजादी की पहली लड़ाई, जो 1857 में लड़ी गई थी, की असफलता के बाद 1885 में एक अंग्रेज ने ब्रिटिश सरकार के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कर दी थी। कांग्रेस की स्थापना के ठीक 28 वर्ष बाद 1913 में भारत के क्रांतिकारियों ने अमरीका के सेनफ्रांसिस्को में हिंदोस्तान गदर पार्टी की स्थापना की, जिसके प्रधान सोहन सिंह भकना थे। इसमें अनेक प्रदेशों के लोग थे, लेकिन ज्यादातर लोग पश्चिमोत्तर भारत के ही थे। पंजाब के लोगों की इसमें प्रमुखता थी। गदर पार्टी का ध्येय भारत की आजादी था, लेकिन वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तरह ब्रिटिश सरकार से सहयोग कर संवैधानिक लड़ाई लड़ने में रुचि नहीं रखती थी, बल्कि वह ब्रिटिश सरकार की शक्ति का उत्तर गोली से ही देना चाहती थी। पत्थर का जवाब पत्थर। 1915 के आते-आते गदर पार्टी के लोग भारत में आकर उसी आंदोलन में जुट गए, जिसका संकेत भकना ने किया था। पंजाब इनकी गतिविधियों का सबसे सक्रिय केंद्र बन गया। ब्रिटिश सरकार को लगने लगा कि भारत में एक ऐसी पार्टी ने जन्म ले लिया है, जो ब्रिटिश सरकार को उन्हीं तरीकों से भारत से निकालना चाहती है, जिन तरीकों से अंग्रेजों ने यहां कब्जा जमाया था। भारत में अंग्रेजों ने भी बंदूक के बल पर ही कब्जा जमाया था, यह अलग बात है कि उन्होंने बंदूक का लाभ उठाने के लिए भारत में पहले से ही जमे हुए मध्य एशियाई कबीलों के शासकों की आपसी फूट का प्रयोग किया। उधर अमृतसर में बैसाखी के उत्सव का परंपरागत उत्साह तो था ही, इस बार इस राजनीतिक उथल-पुथल से वातावरण और भी गरमा गया था। शासन ने अमृतसर में बैसाखी के अवसर पर किसी प्रकार भी एकत्रित होने को प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन इस निर्णय का प्रचार नहीं किया। सरकार किसी भी सार्वजनिक स्थान पर बैसाखी की सभा करने की अनुमति नहीं दे रही थी। तब एक निजी स्थान का चयन सभा के लिए किया गया। स्वर्ण मंदिर के पास ही लगभग छह-सात एकड़ का एक बहुत बड़ा मैदान था, जो जलियांवाला बाग के नाम से प्रसिद्ध था।

बैसाखी के पर्व पर अमृतसर में जो भी आएगा, वह स्वर्ण मंदिर में आकर सरोवर में स्नान तो अवश्य करेगा। इस बाग के मालिक को यहां सभा करने पर कोई एतराज नहीं था। बाग के मालिक को जब कोई आपत्ति नहीं थी, तो सरकार उसमें कानूनी तौर पर अड़ंगा नहीं डाल सकती थी। इसलिए बैसाखी पर्व की सभा करने के लिए जलियांवाला बाग से उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता था? यह मैदान चारों ओर से घिरा हुआ था, क्योंकि इसके चारों ओर मकान बने हुए थे। बाग में जाने का केवल एक छोटा सा संकरा रास्ता बचा हुआ था। जलियांवाला बाग में बैसाखी पर्व की तैयारियां शुरू हो गई। ऐसा नहीं कि आम लोगों को अंग्रेजों की नीचता का पता नहीं था। अमृतसर में उसका नंगा नाच कई दिनों से हो ही रहा था, लेकिन लोग इस बार केसरिया बाना पहन कर मानो शहादत देने के लिए ही निकले थे। देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है। विदेशी शासक अपनी क्रूरता में किसी भी सीमा तक जा सकते थे। श्रद्धालु सुबह से ही बाग में जुटने शुरू हो गए थे। साढ़े चार बजे तक पंद्रह से लेकर बीस हजार के लगभग लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हो चुके थे। चारों ओर नर-मुंड ही दिखाई दे रहे थे। मिट्टी के एक ऊंचे टीले पर खड़े होकर जनता को संबोधित करने की व्यवस्था की गई थी। सभा शुरू हो चुकी थी। दो प्रस्ताव पारित किए जा चुके थे। तीसरे प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हुई थी। यह प्रस्ताव था कि ब्रिटिश सरकार भारत में अपनी दमन की नीति को बदले, लेकिन तब तक ब्रिटिश सरकार की दमन की नीति का नंगा प्रदर्शन करने के लिए डायर जलियांवाला बाग के मुहाने पर हथियारबंद फौज लेकर पहुंच चुका था। पूरे पांच बजकर पंद्रह मिनट पर जनरल डायर पचास राइफलमैन और मशीनगन से लदी दो गाडि़यां लेकर बाग के मुख्य प्रवेश द्वार पर आ डटा। प्रवेश द्वार पर उसने अपने राइफलमैन तैनात किए। उसकी इच्छा मशीनगन भी प्रवेश द्वार पर लाने की थी, लेकिन द्वार इतना तंग था कि गाड़ी अंदर नहीं आ सकती थी। बिना किसी चेतावनी के डायर की सेना ने वहां उपस्थित श्रद्धालुओं पर गोलीबारी शुरू कर दी। गोलियां उन दिशाओं में चलाई जा रही थीं, जहां के संकरे रास्तों से लोग निकलने की कोशिश कर रहे थे। अनुमान किया जाता है कि 1650 से भी ज्यादा राउंड फायर किए गए। अंग्रेज सरकार ने जो स्वयं आधिकारिक आंकड़े जारी किए, उसके अनुसार 379 लोग शहीद हुए और 1100 घायल हुए, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा की गई जांच के अनुसार एक हजार से भी ज्यादा श्रद्धालु शहीद हुए और पंद्रह सौ से भी ज्यादा घायल हुए थे। बाग के अंदर एक कुआं था, उसी में से 120 से भी ज्यादा लाशें निकाली गईं। इस कुकृत्य से ब्रिटेन सरकार का अमानवीय और साम्राज्यवादी विकृत चेहरा नंगा हो गया। ब्रिटिश सरकार की चारों ओर इस अमानवीय कृत्य के कारण निंदा हो रही थी। अंग्रेजों को यह दिखाना था कि पंजाब में इस नरसंहार को लेकर कोई रोष नहीं है। अंग्रेज सरकार ने, जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है कि पंजाब में अनेक संस्थाओं में अपने पिट्ठू भर रखे थे। उन्हीं ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में डायर को बुलाकर उसे सम्मानित करने के लिए सिरोपा भेंट किया। इससे पूरे पश्चिमोत्तर भारत में रोष की लहर दौड़ गई। इससे ऐसा जन आंदोलन भड़का कि अंग्रेजों के पिट्ठुओं को लोगों ने गुरुद्वारों से निकाल बाहर किया और उनकी व्यवस्था के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की स्थापना की गई। पूरे तीन साल बाद मार्च 1922 को ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट को वापस ले लिया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जलियांवाला बाग में जब शांतिप्रिय जनता पर डायर की सेना गोलियों की बौछार कर रही थी, तो उस भीड़ में एक अनाथ बालक ऊधम सिंह भी था। उसने यह सारा नरसंहार अपनी आंखों से देखा था। उसने जलियांवाला नरसंहार का बदला लेने का निर्णय कर लिया।

जनरल डायर इंग्लैंड वापस जा चुका था। वहां 1927 में  उसकी स्वाभाविक मौत भी हो चुकी थी, लेकिन माइकल ओ डायर अभी जिंदा था और लंदन में रह रहा था। ऊधम सिंह ने नरसंहार के दोषियों को सजा देने की प्रतिज्ञा की और इस काम को अंजाम देने के लिए वह 1934 में लंदन चला गया। वह किसी उचित अवसर की प्रतीक्षा में रहता था और वह दिन आया 13 मार्च, 1940 को। उसे पता चला कि जलियांवाला नरसंहार के समय पंजाब के गवर्नर जनरल रहे माइकल ओ डायर लंदन के कैक्सटन हाल में सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक सभा में मुख्य वक्ता के तौर पर आने वाले हैं। ऊधम सिंह वहां श्रोता के रूप में पहुंच गए। जब ओ डायर ने अपना भाषण पूरा कर लिया, तो ऊधम सिंह ने दो गोलियों से डायर को ढेर कर दिया। कुछ दूसरे गोरे भी घायल हुए। हिंदोस्तान में ऊधम सिंह के इस वीरोचित कार्य पर खुशियां मनाई गईं, लेकिन इंग्लैंड में सन्नाटा छा गया। महात्मा गांधी ने कहा-‘मुझे इस कृत्य से बहुत दुख हुआ। मैं इसे एक प्रकार का पागलपन ही मानता हूं। मुझे आशा है भारत के बारे में राजनीतिक निर्णय करते समय इस घटना को आधार नहीं बनाया जाएगा’। पंडित नेहरू की चिंता दूसरी थी। उनको डर था कि कहीं ऊधम सिंह के इस कार्य से ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के संबंध न बिगड़ जाएं और कांग्रेस, जो सत्ता प्राप्ति के नजदीक पहुंच गई लगती थी, उसमें कहीं बाधा न पड़ जाए।

इसलिए उन्होंने नेशनल हैराल्ड अखबार में स्पष्टीकरण देते हुए लिखा – ‘मैं इस हत्या की निंदा करता हूं। मुझे आशा है इसका भारत के भविष्य का निर्णय किए जाने की प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा’। ऊधम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उस पर मुकद्दमा चलाया गया। ऊधम सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। सजा सुनने पर ऊधम सिंह ने वक्तव्य दिया, जिसे न्यायाधीश ने प्रेस में जाने से रोक दिया। उसे 31 जुलाई, 1940 को लंदन की पैंटोनविल जेल में फांसी दे दी गई। ऊधम सिंह की अस्थियों का कुछ हिस्सा अभी भी जलियांवाला बाग में धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा हुआ है। ऐसा भी कहा जाता है कि भगत सिंह ने अपने लिए जिस रास्ते को चुना था, उसके पीछे भी जलियांवाला बाग के नरसंहार की प्रतिक्रिया ही थी।

ई-मेल- kuldeepagnihotri@gmail.com