कांगड़ा में जाति नहीं, योग्यता पर मतदान

लोकसभा चुनावों के दंगल में भाजपा-कांग्रेस ने नए प्रत्याशियों पर खेला है दांव

कांगड़ा- लोकसभा चुनावों के दंगल में लोग जातीय आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर वोट डालते हैं। इस मर्तबा दोनों प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशी संसदीय चुनाव के अखाड़े में नए हैं। कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र से इस बार दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा व कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले प्रत्याशियों पर दांव खेला है। भाजपा के गद्दी समुदाय के किशन कपूर चुनाव मैदान में हैं, तो कांग्रेस ने ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले पवन काजल को चुनावी जंग में उतारा है। हालांकि किशन कपूर का चुनावी तजुर्बा पवन काजल से कहीं अधिक है, लेकिन पवन काजल ने थोड़े अंतराल में ही राजनीति में अपनी पैठ बना ली है। जातीय समीकरण का सवाल है, तो राजपूत समुदाय भी काफी दमखम रखता है। इसके अलावा ओबीसी मतदाताओं की तादाद भी यहां अच्छी खासी है। इस संसदीय क्षेत्र का इतिहास बताता है कि यहां जातीय समीकरण के आधार पर न तो कभी चुनाव लड़े गए हैं और न ही मतदाताओं ने प्रत्याशी की जाती-पाती के आधार पर कभी वोट डाले हैं। यही वजह रही है कि इस क्षेत्र के मतदाताओं ने यहां सबसे कम आबादी वाले खत्री समुदाय के नेताओं को पांच मर्तबा संसद में भेजा है। मतदाता संख्या के हिसाब से दूसरे नंबर पर आने वाले ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का मौका चौधरी चंद्र कुमार को 2004 में मिला था। कांगड़ा सीट पर खत्री समुदाय की आबादी सबसे कम लगभग आठ फीसदी है, लेकिन इस समुदाय से संबंधित नेता पांच बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। 1977 में पहली बार कांग्रेस के खिलाफ बही हवा के बाद कंवर दुर्गा चंद के रूप में राजपूत समुदाय से संबंधित पहला व्यक्ति लोकसभा में पहुंचा, लेकिन अगले चुनाव में फिर खत्री समुदाय के बिक्रम महाजन ने यह सीट जीत ली। ओबीसी के श्रवण कुमार को चुनाव में हराया। 1984 में राजपूत उम्मीदवार चंद्रेश कुमारी ने चुनाव जीता। 1990 के उपचुनाव में एक बार फिर से राजपूत उम्मीदवार डीडी खनूरिया चुनावी बाजी अपने नाम करने में सफल रहे। 1998 और 1999 में दोनों चुनाव शांता कुमार ने जीते। 2004 में ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस के चंद्र कुमार जीते और 2009 में राजन सुशांत भाजपा के और 2014 में शांता कुमार ने चुनाव जीता।