चेतना के साथ

बाबा हरदेव

मन जीव का सब से महत्त्वपूर्ण और सूक्ष्म उपकरण है और इसका कार्य है सोचना। ये संकल्प भी करता है और विकल्प को भी जन्म देता है। बुद्धि मन के ही संकल्प-विकल्प की समीक्षा करती है और जीव को कर्म करने का निर्णय करने में सहायता प्रदान करती है। जिन महात्माओं का विश्वास है कि शरीर दो प्रकार के होते हैं। स्थूल (जड़) और सूक्ष्म (चेतन), वे फरमाते हैं कि मन का स्थान इन दोनों के बीच है और इसका झुकाव आमतौर पर जड़ शरीर की तरफ रहता है। मगर सद्गुरु की कृपा हो जाती है तो यही मन चेतन के साथ हो लेता है। अतः हजारों वर्षों से धार्मिक लोग मनुष्य को समझाते चले आ रहे हैं कि ‘मन’ चंचल है और इसकी (मन की) चंचलता बहुत बुरी बात है। निःसंदेह मन चंचल है, लेकिन अगर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मन की चंचलता कोई बुरी बात नहीं है, क्योंकि मन की चंचलता इसके जीवित होने का प्रमाण है। अब जहां जीवन है, वहां ‘गति’ है और जहां जीवन नहीं है वहीं ‘जड़ता’ है, वहां गति नहीं है। मानो मन की चंचलता मनुष्य के जीवित होने का लक्षण है जड़ होने का नहीं। लेकिन ये ‘चंचलता’ पागलपन पर आधारित न हो, क्योंकि विक्षिप्त चंचलता शुभ नहीं होती, वो मन जो पागल की भांति भटकता है घातक है। हां! स्वयं गति घातक नहीं है, अतः महात्मा मन की गति और चंचलता के विरोध में नहीं है। मन की जड़ता के खिलाफ जरूर है और विडंबना ये है कि साधारण मनुष्य अभी तक दो तरह की बातें ही जानता है या तो पागल मन की गति के बारे में या फिर किसी भी नाम को बार-बार रटने वाला या माला फेरने वाले आदमी की जड़ता को जानता है। इन दोनों के अतिरिक्त साधारण मनुष्य कोई तीसरी चीज नहीं जानता मन के संबंध में। यानी गतिमान चित सार्थकता आबद्ध चित के बारे में इसे कुछ पता नहीं होता है। अतः महात्मा फरमाते हैं कि मन ऐसा चाहिए कि गतिमान हो, लेकिन विक्षिप्त न हो। अब सवाल पैदा होता है कि ऐसा मन कैसे पैदा हो? इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि मन की चंचलता के प्रति मनुष्य में अत्याधिक विरोध का जो भाव है, वो उचित नहीं है और न ही अनुग्रहपूर्ण और न ही कृतज्ञतापूर्ण है, क्योंकि अगर मन गतिमान न हो और चंचल न हो तो हम को न मालूम किस कूड़े-कर्कट पर उलझा दें और इस सूरत में हमारा जीवन वहीं समाप्त हो जाए, लेकिन अगर सही मायनों में सोचा जाए तो ‘मन’ मनुष्य का बड़ा साथी है। ये हर जगह से मनुष्य को उबार देता है और आगे के लिए गतिमान कर देता है। उदाहरण के तौर पर एक आदमी धन इकट्ठा करता है। यश, प्रतिष्ठा और पदार्थ प्राप्त करता है। अब ये कितना ही धन इकट्ठा कर ले यश, प्रतिष्ठा और पद प्राप्त कर ले, मनुष्य का मन पूर्ण तौर पर राजी नहीं हो पाता, मन लगातार इनकार करता चला जाता है कि इतने से तो कुछ भी नहीं होगा। मानो मन कहता है ‘और लाओ’ और अगर धन, यश, प्रतिष्ठा और पद में और वृद्धि होती चली जाए, तब भी मन कहता चला जाता है ‘और लाओ’ ‘और लाओ’। मन कभी तृप्त नहीं होता। ये मन की अतृप्ति बड़ी अद्भुत है और अगर अतृप्ति न हो तो दुनिया में कोई आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। मिसाल के तौर पर अगर महात्मा बुद्ध का मन तृप्त हो जाता, उस धन-दौलत से जो उनके घर में उपलब्ध थी तो फिर बुद्धि के जीवन में आध्यात्मिक क्रांति नहीं हो सकती थी, लेकिन उनका मन अतृप्त रहा और इन चीजों से वो तृप्त न हुआ।