प्राचीन शिव मंदिर, त्रिलोकपुर

हिमाचल की पर्वत शृंखलाओं पर बने देवी-देवताओं के मंदिर ही हिमाचल को देवभूमि का दर्जा दिलाते हैं। जिला कांगड़ा में धर्मशाला से 50 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा स्थान है त्रिलोकपुर। गांव के इस छोटे, लेकिन महत्त्वपूर्ण स्थान पर सड़क किनारे भगवान शिव का गुफा नुमा एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के अंदर छत से ऐसी विचित्र जटाएं लटकती हैं, जिन्हें देख ऐसा लगता है मानो छत से सांप लटक रहे हों। वहीं शिव प्रतिमा के दोनों और पत्थर के स्तंभ यह प्रमाण देते हैं कि शिवलिंग प्राकृतिक है। गुफा के आकार में बने इस मंदिर में प्रवेश करते ही सिर अपने आप शिव प्रतिमा के समक्ष श्रद्धा से झुक जाता है। मंदिर के बाहर एक छोटा सा नाला बहता है जिसमें कई विशाल शिलाएं अजीब सी आकृतियों जैसी लगती हैं। इन्हें देख कर ऐसा लगता है मानो बहुत सी भेड़ें इस नाले में लेटी हों। इस मंदिर के पुजारी अविनाश गिरि का कहना है कि  सतयुग में एक बार भगवान शिव इस गुफा में एकांत पाकर तपस्या में लीन थे। जिस स्थान पर भोले शंकर बैठे थे, वहां दो सोने के स्तंभ थे। उनके आसपास सोना बिखरा पड़ा था। भगवान शिव के सिर पर सैकड़ों मुख वाला सर्प छतर की भांति उन्हें सुरक्षा प्रदान कर रहा था। तभी एक गड़रिया अपनी भेड़ों को चराता हुआ उधर से निकला। उसने गुफा में देखा कि साधु तपस्या में लीन है और यह भी देखा कि साधु के चारों ओर सोना बिखरा पड़ा है। उसके मन में लालच आ गया। उसने सोचा साधु तपस्या में लीन है क्यों न सोना उठा कर ले जाऊं। गड़रिए ने आसपास बिखरा सोना समेट लिया, लेकिन उसको अधिक लालच आया और उसने सोचा की साधु के साथ खड़े दो स्वर्ण स्तंभों से भी सोना निकाल लूं।  इसी दौरान तपस्या में लीन भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई और उन्होंने क्रोध में आकर गड़रिए को पत्थर होने का श्राप दे दिया। जो आज भी उसी मुद्रा में गुफा में मौजूद है। लोगों का मानना है कि भगवान शिव के ऊपर लटकने वाले सांप के मुख से उस समय दूध टपकता था जो आज पानी बनकर टपकता है। मंदिर में बनी इन आकृतियों और प्राकृतिक रूप से विराजमान शिवलिंग को देखने रोजाना सैकड़ों लोग मंदिर में आते हैं।

-संजीव राणा, जवाली