भूत से डरें नहीं, वह तो बस भूत है

ऐसी विघटित मनःस्थिति ही प्रेतात्माओं को अपना उपयुक्त क्रीड़ा-क्षेत्र लगा करती हैं। प्रेतात्माएं उसे अपना क्रीड़ा-क्षेत्र न भी बनाएं तो क्या, मनोविकृतियों का झुंड एकत्र होकर मानसिक रोगों का रूप ले लेता है या अन्य प्रकार से उन्मत्त आचरण के लिए प्रेरित व बाध्य करता है। उत्कृष्ट लक्ष्यों के लिए साहस, उल्लास और स्फूर्ति से भरपूर मनःस्थिति मनुष्य की सामर्थ्य को अधिकाधिक विकसित एवं ऊर्ध्वगामी बनाती है….

-गतांक से आगे…

अशांत, विक्षुब्ध मनःस्थिति भी अपना स्वभाव उस रूप में ही बनाए रखती है। दुष्ट और दुरात्म जीवन-क्रम की यह स्वाभाविक परिणति जीवात्मा को जिस अशांत दशा में रहने को बाध्य करती है, उसका ही नाम प्रेत दशा है। अपनी दुर्दशा से सामान्यतः प्रेतों को दुख ही होता है, पर अत्यंत कलुषित, अनाचारी व्यक्तियों की हिंस्र मनोवृत्तियां प्रेत जीवन पाकर भी अपनी क्रूर आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहती हैं और लोगों को अनायास सताती रहती हैं, पर अपना आतंक वे उन्हीं पर जमा पाती हैं, जिनका आत्मबल अविकसित हो। प्यार का अभाव, असुरक्षा की आशंका, मूर्खतापूर्ण कठोरता से भरा नियंत्रण, आत्यंतिक चिंता, कुसंग से उत्पन्न विकृतियां व्यक्ति के विकासक्रम को जब बालकपन से ही तोड़-मरोड़ देती हैं, तो आत्मबल का सम्यक विकास नहीं हो पाता। ऐसी विघटित मनःस्थिति ही प्रेतात्माओं को अपना उपयुक्त क्रीड़ा-क्षेत्र लगा करती हैं। प्रेतात्माएं उसे अपना क्रीड़ा-क्षेत्र न भी बनाएं तो क्या, मनोविकृतियों का झुंड एकत्र होकर मानसिक रोगों का रूप ले लेता है या अन्य प्रकार से उन्मत्त आचरण के लिए प्रेरित व बाध्य करता है। उत्कृष्ट लक्ष्यों के लिए साहस, उल्लास और स्फूर्ति से भरपूर मनःस्थिति, जहां मनुष्य की सामर्थ्य को अधिकाधिक विकसित एवं ऊर्ध्वगामी बनाते हुए, उसे महामानवों-देवमानवों की कोटि में पहुंचा देती है, वहीं दुर्बल दूषित मनःस्थिति जीवनभर हताशा, आक्रोश और आत्मग्लानि के नरक में तो जलाती ही है, मरणोत्तर जीवन में भी अंतश्चेतना की अविच्छिन्नता के कारण उसी स्तर की गतिविधियों का क्रम चलते रहने से प्राणी को क्षण भर भी चैन नहीं लेने देती। लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये अशांत आत्माएं या मनोदशाएं उन्हीं लोगों पर अपना त्रासपूर्ण प्रभाव डाल सकने में समर्थ हो पाती हैं, जिनकी स्वयं की मनःस्थिति दुर्बल-विशृंखल हो। सर्वप्रथम तो, भूत-बाधा के यथार्थ होते हुए भी यह तथ्य निरंतर स्मरणीय है कि भूत-बाधाओं के किस्से कहानियों में लगभग तीन-चौथाई तो निस्सार गप्पें होती हैं। शेष एक-चौथाई में भी अधिकांश भ्रांति और अज्ञानता के आवरण में लिपटी होती हैं। अंधविश्वासी शंकालु लोग वास्तविक शारीरिक-मानसिक रोगों को भी भूत-बाधा मान बैठते हैं और उचित उपचार न कराकर इधर-उधर भटकते रहते हैं तथा सब कुछ गंवा बैठते हैं।

 (यह अंश आचार्य श्री राम शर्मा द्वारा रचित किताब ‘भूत कैसे होते हैं,  क्या करते हैं’ से लिए गए हैं)