मोती लाल नेहरू थे समीउल्लाह के मित्र

सौंदर्य के क्षेत्र में शहनाज हुसैन एक बड़ी शख्सियत हैं। सौंदर्य के भीतर उनके जीवन संघर्ष की एक लंबी गाथा है। हर किसी के लिए प्रेरणा का काम करने वाला उनका जीवन-वृत्त वास्तव में खुद को संवारने की यात्रा सरीखा भी है। शहनाज हुसैन की बेटी नीलोफर करीमबॉय ने अपनी मां को समर्पित करते हुए जो किताब ‘शहनाज हुसैन: एक खूबसूरत जिंदगी’ में लिखा है, उसे हम यहां शृंखलाबद्ध कर रहे हैं। पेश है आठवीं किस्त…

-गतांक से आगे…

जब स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था, तो ब्रिटिश सरकार की तरफ से उन्हें चेतावनी दी गई कि वे अपने निवास स्थान पर गैर सरकारी गतिविधियों को बढ़ावा देकर अपने पद को खतरे में डाल रहे हैं। उन्हें चेताया गया कि वे अपने घर में मोतीलाल नेहरू का आना तुरंत बंद कर दें, जो संभवतः उनके घर का इस्तेमाल छुपने के उद्देश्य से कर रहे हैं। समीउल्लाह ने तुरंत राज्यपाल को दृढ़ शब्दों में जवाब दिया, ‘मोतीलाल मेरे मित्र हैं और मेरे घर के दरवाजे हमेशा उनके लिए खुले रहेंगे।’ उन्होंने लिखा कि अगर ब्रिटिश सरकार को इससे कोई आपत्ति है तो वह तुरंत अपना इस्तीफा देने को तैयार हैं। समीउल्लाह अपने आदर्शों पर टिके रहने वाले इनसान थे और इसके लिए उनका बेहद सम्मान किया जाता है। जब नसीरुल्लाह ने अपनी पढ़ाई पूरी की तो उनकी वतन-वापसी की खबर भारत के ऊंचे घरानों में बहुत तेजी से फैल गई। यह वह समय था, जब अभिजात वर्ग और अच्छी ब्रिटिश शिक्षा का संयोजन बहुत दुर्लभ था, तो इस युवा की झोली में देश के विभिन्न हिस्सों से अच्छी नौकरी के प्रस्ताव आने लगे। हालांकि समीउल्लाह चाहते थे कि उनके नवाबजादे लखनऊ जाकर लॉ की प्रेक्टिस शुरू कर दें। हालांकि उनके पूर्वज समरकंद के अपदस्थ शासक थे, लेकिन उनका जन्म लखनऊ में हुआ था और वहां से हैदराबाद आते समय वह वहां अपनी आलीशान जायदाद छोड़कर आए थे। अब अपने बड़े बेटे की वापसी से उनके मन में फिर से आशा जगी थी कि वह लखनऊ में अपनी पारिवारिक जड़ों को और पुख्ता करेंगे। ‘आप वहां रहकर कोशिश कर सकते हैं’, उन्होंने कहा। ‘और जब भी चाहे हैदराबाद वापस आ सकते हो।’ मेरे नाना ने लखनऊ जाने का फैसला लिया और जल्दी ही उन्हें अहसास हो गया कि लखनऊ की शांति हैदराबाद के अफरा-तफरी के जीवन की अपेक्षा उनके मिजाज के ज्यादा अनुकूल है। आने वाले सालों में, लखनऊ उनका स्वाभाविक घर हो गया, जहां वह अपनी बेगम सईदा और तीन बच्चों के साथ रहने लगे। हैदराबाद से लखनऊ का ट्रेन का सफर नसीरुल्लाह और उनकी नई ब्याहता के लिए बेहद लंबा और थकाऊ रहा। जब वे शहर से आगे बढ़ निकले, तो नसीरुल्लाह की नजर अपनी बेगम के करीने से तहाए हुए बुरके पर पड़ी। उन्हें याद आया कि ट्रेन में चढ़ते वक्त उस काले परदे के नीचे से किस कद्र उनकी बेगम की चांदी सी रंगत झलक रही थी, साथ ही उस दमघोंटू परदे से दिखते बेगम के परेशान चेहरे ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया। क्या उनकी लज्जा के इस प्रतीक को उनसे दूर कर देना गलत होगा? क्या पर्दा उनकी संस्कृति का हिस्सा था? वह मन ही मन उलझते गए।