राणा जगत सिंह सात वर्ष तक रहा था नालागढ़ में

बाघल पर जब गोरखों का अधिकार हो गया तो राणा जगत सिंह भी बाघल कोे छोड़कर नालागढ़ चला गया और पहले वहां मठ गांव में रहने लगा और बाद में राजा रामसरन सिंह के साथ। वह नालागढ़ में सात वर्ष तक रहा। इन वर्षों में बाघल पर गोरखों का पूर्ण अधिकार रहा। उन्होंने ‘अर्की’ को अपनी राजधानी बनाया…

गतांक से आगे …

हिंदूर के राजा राम सिंह ने नालागढ़ छोड़कर पलासी में शरण ली। बाघल पर जब गोरखों का अधिकार हो गया तो राणा जगत सिंह भी बाघल को छोड़कर नालागढ़ चला गया और पहले वहां मठ गांव में रहने लगा और बाद में राजा रामसरन सिंह के साथ। वह नालागढ़ में सात वर्ष तक रहा। इन वर्षों में बाघल पर गोरखों का पूर्ण अधिकार रहा। उन्होंने ‘अर्की’ को अपनी राजधानी बनाया।  वहां पर उन्होंने कई किले बनाए। जिसमें एक किला अर्की के निकट बुहेरी में भी स्थित था। इन किलों में कोई दो हजार सैनिक रहते थे। एक प्रकार से यह क्षेत्र गोरखों का बड़ा सैनिक गढ़ बन गया था। अमर सिंह थापा भी स्वयं यहीं रहता था। वे अर्की के लोगों से 23247 रुपए कर के रूप में वसूल करते थे। गोरखों के बारे में स्थानीय लोगों के मन में कई प्रकार के डर थे। लोगों को विश्वास था कि गोरखा सैनिक बदले की भावना से परिपूर्ण थे। ये माना जाता था कि यदि किसी गोरखा को चलते हुए कोई पत्थर लग जाता था, तो वह तब तक चैन से नहीं बैठता था, जब तक कि उस पत्थर के टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता। एक प्रचलित कहावत थी कि ‘जो गुरखयां ते बचे तां बचे।’ गोरखा सेनाएं स्थानीय लोगों के लिए आतंक का पर्याय थी।  नवंबर, 1814 में अंग्रेजों ने गोरखों के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा की और सभी पहाड़ी राजाओं को सहयोग देने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने राजाओं को वचन दिया कि समाप्ति पर उनके पैतृक राज्य उन्हें वापस लौटा दिए जाएंगे। पश्चिम की ओर से अंग्रेज सेना मेजर जनरल डेविड और औकटरलूनी की कमान में रोपड़ होते हुए हिंदूर-नालागढ़ में प्रवेश किया। इसमें हिंदूर के राजा रामसरन सिंह और बाघल के राणा जगत सिंह ने बहुत सहयोग दिया। इस समय अमर सिंह थापा अर्की में ही था। लड़ाई आरंभ होने पर वह अर्की से नालागढ़ में स्थित रामशहर चला गया। लड़ाई में गोरखों की पराजय हुई और उन्हें पहाड़ी प्रदेश छोड़कर वापस नेपाल जाना पड़ा। युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों ने अपने वचन के अनुसार, जिन पहाड़ी राजाओं, राणाओं और ठाकुरों ने लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया उनके राज्य उन्हें लौटा दिए गए। इस नीति के फलस्वरूप अंग्रेजों ने बाघल के राणा जगत सिंह को तीन सितंबर, 1815 को एक सनद द्वारा पुश्त-दर-पुश्त के लिए बाघल की ठकुराई लौटा दी, परंतु इसके साथ ये शर्तें लगा दी कि राणा लड़ाई के समय सैनिक सहायता करें और सड़कों को अपने राज्य में ठीक प्रकार से बनाए रखे। आवश्यकता पड़ने पर बेगारियों को भी उपलब्ध करवाए। कुछ समय के पश्चात बेगारियों की वह शर्त हटा दी और उसके बदले में सरकार ने 3500 रुपए वार्षिक राजकर लगा दिया।