लेखक के चरित्र पर छपी एक कहानी

चुनाव से पूर्व इस कहानी को पढ़ने की मंशा अंततः लेखक राजेंद्र राजन ने ही पूरी कर दी और हंस पत्रिका में प्रकाशित ‘लेखक की मौत’ अपने साथ राजनीति की अंदरूनी सतह पर लिखे सत्य को चीर कर बाहर निकलती है। कहानी दरअसल एक ऐसी फांस से गुजरती है, जहां बुद्धिजीवी वर्ग की सियासी महत्त्वाकांक्षा, सत्ता आकर्षण या सामाजिक घर्षण को छू पाना अपने अस्तित्व को कड़वाहट से भर देना ही साबित होता है। यहां ताबूत में लटके मोतियों को पाने की कोशिश है, तो सफलता के शृंगार में सियासत के हर कांटे को शरीर पर उगाने का संकल्प है। इसलिए कहानी लेखकीय मर्यादा में संवेदना की लुका-छिपी पर होते घात-प्रतिघात को ओढ़ने का दंडनीय वृत्तांत बन कर हर लम्हे का विषाद खुद में खोजती है। राजनीतिक चक्रव्यूह में पिसते अनुभव के यथार्थ पर लिखी कहानी का मुख्य पात्र आलोक, अपने चरित्र पर छप चुकी सियासत से बाहर निकलते-निकलते ऐसी किताब बन जाता है, जिस पर ‘दीमक’ का असर साफ है। कहानी के भीतर राजनीतिक गंध खोखले बौद्धिक आवरण में घुसपैठ करती है, तो सत्ता की अठखेलियों में पलते सरकारी समुदाय को ऐसे संबंधों में प्रश्रय, आश्रय या शरण की अपनी कीमत दिखाई देती है। कहानी में मध्यम वर्ग के मूल्यों का गठबंधन इस ताक में रहता है कि जिंदगी के मसलों को हमेशा-हमेशा के लिए किनारे लगा दिया जाए। ‘लेखक की मौत’ के भीतर हम उस सहज स्पर्श को महसूस करेंगे, जो समान संस्कृति या देश के प्रति वफादारी निभाने के लिए राजनीति के घालमेल में मृगतृष्णा के मानिंद हमें विचारों के रेगिस्तान पर पटक देता है। कथा का यही चरित्र सरकारी नौकरी में, सरकार होने की कृतज्ञता को राजनीतिक अंधेरे में कुर्बान कर देता है। यहां राजनीति के अंतरंग बौद्धिक कर्मठता का अंत किस तरह होता है या बड़े ओहदों से पार्टियों के बिल में घुसने का पश्चाताप किस हद तक रहता है, इसे राजेंद्र राजन ने कलात्मक ढंग से पेश किया है। प्रस्तुति के महीन स्पंदन के बीच धड़कते संवाद, ‘पॉलिटिकल पार्टी को गले लगा चुके हो तो तुम अपने लेखन में भला कैसे ऑब्जेक्टिव हो सकते हो। अब तुम्हें कौन पढ़ेगा? केवल तुम्हारी पार्टी के लोग, फिर वो भी तुम्हें क्यों पढ़ेंगे?’ -में वैचारिक प्रतिपादन की एक लंबी रेखा खींची गई। कहानी का लेखक और कहानी के बीच का लेखक जब एक-दूसरे में समाहित होते हैं, तो संबोधन के मर्म पर, ‘मैं कतई अपने लेखक को मरने नहीं दूंगा। मेरा एक स्वतत्र अस्तित्व है, अस्मिता है, पहचान है। उसे कोई नहीं मिटा सकता। मुझे अभिव्यक्ति की आजादी है, उसे कोई नहीं छीन सकता।’, विवेकशील मंथन उभरता है। क्या लेखक समाज की बौद्धिकता अपनी विचारशीलता को सस्ते में गंवा सकती है या जिंदगी भर सरकारी कक्ष में भरी गई कूक खुद ही राजनीतिक समर्थन का पैबंद बन कर आत्मसम्मान की भाषा भूल सकती है। सियासी खिलाडि़यों के बीच अपनी हस्ती, हैसियत और हसरत को पाने का संकल्प लेता लेखक केवल एक प्रतीक हो सकता है, लेकिन कहानी ने अपने ताने-बाने में यह साबित कर दिया कि सिद्धांतों की बोलियों और समझौते की राख पर चलने से कोई आदर्शवादी नहीं हो सकता। राजनीति के जरिए संस्कृति-सभ्यता, कला या भाषा से संबंधित ऊंचे ओहदे तो मिल सकते हैं, लेकिन सत्ता का हिस्सा बनकर क्रांति का उद्घोष नहीं हो सकता। स्वाभिमान से ओत-प्रोत अस्तित्व की लाखों चुनौतियां हो सकती हैं, लेकिन राजनीतिक चमक के मुलायम लम्हों के भीतर खुरदरी सोच में अंततः बौद्धिक स्वतंत्रता, मौलिकता व सिद्धांतवादिता की मौत सुनिश्चित है और इसीलिए कहानी के भीतर, लेखक की मौत, वास्तव में लेखक के विचारों की छटपटाहट भी रही है। कहानी में न कोई नायक है और न ही निर्दोष, लेकिन एक स्वीकारोक्ति जरूर हम सबके आसपास आकर खड़ी हो जाती है। सियासी मनोरंजन की भाषा हिमाचल में चुनाव के दौरान नेताओं का साहित्यिक अवलोकन भी राजनीतिक पैमाने बदल रहा है। इस दृष्टि से वीरभद्र सिंह की चुटकियां जहां पारंगत हैं, वहीं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी खूब रंग में रंगे हैं। पंडित जी से हालिया प्रेम पर जब मीडिया पूछ लेता है, तो वीरभद्र सिंह का यह कहना कि उन्होंने सुखराम से शादी तो करनी नहीं या विपक्षी घाघ नेता मुकेश अग्निहोत्री से मुख्यमंत्री द्वारा पूछना कि वह बड़े नेता थे तो रामलाल को चुनाव में धक्का क्यों दिया, वास्तव में हिमाचली व्यंग्य की सौम्यता है। शांता कुमार ने भी लोकसभा और पोतासभा में अंतर पैदा करके दादा-पोते की राजनीति में मनोरंजन ढूंढ ही निकाला। हिमाचल की अपनी बोलियों में व्यंग्य की जो भरमार है, उसे अब न सियासी मंच मिल रहा और न साहित्यिक प्रदर्शन दिख रहा है। अतीत में ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने पहाड़ी बोलियों में साझी हिमाचली भाषा तराशने की कोशिश की और बाकायदा मंच के संबोधन साहित्यिक रहे। स्व. लाल चंद प्रार्थी तथा प्रो. नारायण चंद पराशर के बाद शांता कुमार अपने साहित्यिक सरोकारों की वजह से चर्चा में रहे, लेकिन अब तो भाषण भी भाषा भूल गए। राजनीति में आजकल रामधारी सिंह दिनकर चर्चाओं में हैं, तो अंत में उन्हीं के शब्द :

‘कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,

दिल ही नहीं, दिमागों में भी आग लगाने वाली।’ 

-निर्मल असो