लोकतंत्र और अधिनायकवाद

रामचंद्र राही

स्वतंत्र लेखक

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कुछ ऐसे अवसर भी प्रस्तुत हुए हैं, जब यह सवाल गंभीर चुनौती बन कर खड़ा हुआ है कि क्या भविष्य में लोकतंत्र अपनी मूल अवधारणाओं एवं संविधान प्रदत्त व्यवस्थाओं के साथ हमारे देश में कायम रह पाएगा या किसी न किसी प्रकार की तानाशाही हमारे ऊपर थोप दी जाएगी? भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद बालिग मताधिकार पर आधारित है। यह व्यवस्था मात्र राजनीतिक ही नहीं, नैतिक-आध्यात्मिक मूल्य भी है। अपने देश में यह भावना तो रही है कि हर मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है या ईश्वर का ही अंश है, लेकिन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से बनाई गई व्यवस्थाओं एवं व्यवहार में कहीं कभी ऐसा हो रहा हो, इसका प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता। इसका प्रारंभ तो वर्तमान भारतीय संविधान की बुनियाद पर आधारित उस लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही होता है, जिसकी उद्घोषणा ‘हम भारत के लोग’ से होती है। 15 अगस्त, 1947 को भारत के लोग राजशाही, सामंतशाही और साम्राज्यशाही की व्यवस्था में सैकड़ों वर्षों तक रहने-सहने के बाद एक नए युग में प्रविष्ट हुए थे – ‘लोकतंत्र’ के एक नए व्यापक आयाम में दाखिल होने के संकल्प के साथ। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ी गई आजादी की लड़ाई में आमजन की व्यापक एवं शक्तिशाली भागीदारी के कारण ही गुलामी की व्यवस्थाओं से निकलकर सीधे लोकतंत्र की व्यवस्था में सहज स्वीकार्यता के साथ दाखिल होना संभव हुआ था, जो इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी, लेकिन इस लोकतंत्र के ‘लोक’ को अर्थात ‘मतदाता’ को जागृत, चेतन, संगठित और आत्मविश्वास से भरपूर बनाने की कोशिश उतनी नहीं हो पाई, जितनी होनी चाहिए थी। महात्मा गांधी ने 29 जनवरी, 1948 को अखिल भारतीय कांग्रेस के लिए जो मसविदा तैयार किया था, जिसे उनका आखिरी वसीयतनामा भी कहा जाता है और जिसमें उन्होंने कांग्रेस को ‘लोकसेवक संघ’ में रूपांतरित करके लोकतंत्र की बुनियाद बनाने व उसे मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपनी चाही थी, उसे व्यवहार में लाने की कोई योजना उनके मार्गदर्शन में नहीं बन पाई, क्योंकि दूसरे ही दिन 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या कर दी गई। यद्यपि राज्यसत्ता से अलग सामाजिक स्तर पर चलाए गए समाजवादी, साम्यवादी एवं सर्वोदयी आंदोलनों ने, जो सामाजिक समस्याओं पर ही आधारित थे, समाज में गतिशीलता बनाए रखी और राज्यशक्ति को समय-समय पर चुनौती भी देती रही, लेकिन हमें यह स्वीकारना पड़ेगा कि धीरे-धीरे भारतीय लोकतंत्र का ‘लोक’ अत्यधिक राज्याश्रित होते हुए कमजोर पड़ता गया एवं राज्यशक्ति अत्यधिक मजबूत होती गई। ‘लोकतंत्र’ का ‘लोक’ अपने ‘वोट’ की ताकत से ‘राजतंत्र’ को नियंत्रित करने की क्षमता अर्जित नहीं कर पाया। यहां इतिहास के विस्तार में जाना संभव नहीं, लेकिन ‘राजसत्ता’ के अत्यधिक केंद्रित हो जाने और ‘राज्याश्रय’ के अवसर तलाशते फिरते ‘लोक’ की कमजोरी का ही एक चरमबिंदु तब आया, जब ‘इंदिरा इज इंडिया’ के नारे बुलंद होने लगे तथा नौबत आपातकाल रूपी तानाशाही तक आ पहुंची। यह कमजोर होते ‘हम’ और निरंतर मजबूत होते हुए ‘मैं’ का ही परिणाम था। कुछ समय तो ऐसा लगा कि अब हम पुनः ‘लोकतंत्र’ की व्यवस्था में नहीं लौट पाएंगे, लेकिन जैसे ही मौका मिला, ‘तानाशाही’ को चुनौती देती प्रचंड लोकशक्ति को प्रकट होते हमने देखा और 1977 में मतदाताओं ने राजकर्ताओं को एक जबरदस्त पाठ पढ़ाया कि खबरदार, फिर भविष्य में ऐसी गुस्ताखी मत करना! वर्ष 1977 के चुनाव परिणामों का यह एक स्पष्ट संदेश था कि भविष्य का कोई भी प्रधानमंत्री देश में तानाशाही थोपने की कोशिश करने से पहले हजार बार सोचने को मजबूर होगा,

लेकिन हमारी कमजोरी यह है कि ‘मतदाता’ की नियंत्रक शक्ति हम अपने लोकतंत्र को सही पटरी पर टिकाए रखने की दृष्टि से, उस अनुभव के बाद भी, विकसित नहीं कर पाए। इतना ही नहीं, आज हम पुनः इस स्थिति में हैं कि हमारा ‘हम’ सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना छोटा हो गया है कि हमें अपने उद्धार के लिए किसी चमत्कारी ‘मैं’ के जयकारे लगाने और उससे संतुष्ट होने की ओर धकेला जा रहा है। आधुनिक इतिहास ही नहीं, हमारे पौराणिक आख्यान भी यही सीख देते हैं कि ‘सत्ता’ की गद्दी पर विराजमान ‘मैं’ जब स्वयं को इतना विराट और अहंकार से उन्मत्त कर लेता है तथा मनमानी पर उतारू होने लगता है, तो उसका विनाश सुनिश्चित हो जाता है। पिछले पांच साल के अनुभवों से हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भारतीय लोकतंत्र आज पुनः संकट के दौर से गुजर रहा है। संविधान की बुनियाद को इस दौर में अत्यधिक कमजोर किया गया है, संवैधानिक संस्थानों को निरर्थक सिद्ध करने की कोशिशें हुई हैं, शिक्षण संस्थाओं, संचार माध्यमों, न्यायालयों तक को कमजोर करने की कोशिशें हुई हैं। राज्य की शक्तियां एक-दो व्यक्तियों के नियंत्रण में सिमटती गई हैं। लोकतंत्र में चुनाव एक जरूरी अनुष्ठान होते हैं, लेकिन यदि इसमें लोक और सत्ता में से किसी एक को चुनना हो, तो हम क्या करेंगे। एक तरफ लोकतंत्र को मजबूत करने का आदर्श है, तो दूसरी तरफ लालच, भय और चापलूसी हमें सत्ता की ओर धकेलती है। वर्ष 2019 का चुनाव एक बार फिर लोकतंत्र और अधिनायकवाद के बीच का चुनाव साबित होने जा रहा है। भारत का लोकतंत्र और लोक इतिहास की कसौटी पर है। वर्ष 1977 के चुनाव में स्व. लोकनायक जयप्रकाश ने कहा था, ‘भारत की आम जनता जीवन के ऊंचे मूल्यों से प्रेरित होती है और नए इतिहास का सृजन करती है। इस चुनाव में जनता जीतेगी, लोकतंत्र जीतेगा, तानाशाही हारेगी’। आज लोकनायक नहीं हैं, लेकिन क्या उनकी आमजन के प्रति यह गहरी आस्था बिलकुल समाप्त हो गई है? नहीं, भारतीय लोकजीवन का वह अंतर-प्रवाह अब भी जारी है। 23 मई, 2019 के दिन लोकतंत्र विजयी होगा, अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का अंत होगा। फिर हम बुलंदी के साथ उद्घोष करेंगे – भारत के मतदाताओं की जय हो।