विवेक चूड़ामणि

गतांक से आगे…

अवैदिक तथा द्वैतवादी विचारधारा का खंडन कर अद्वैत मत की स्थापना की। इस प्रकार आचार्य ने स्वयं को सर्वज्ञपीठ पर बैठने के योग्य सिद्ध कर दिया। जैसे ही आचार्य ने मंदिर के समीप के कुंड के पवित्र जल का पान कर मां शारदा की स्तुति प्रारंभ की, पूरा मंदिर प्रांगण गंभीर देववाणी से गूंज उठा, वत्स शंकर! मैं तुम्हें सर्वज्ञ उपाधि से विभूषित करती हूं। तुम इस पीठ के योग्य हो। मेरे इस पीठ को सुशोभित करो। मां शारदा की आज्ञा से आचार्य रत्नजड़े पीठ पर आसीन हो गए और लगे विद्या की देवी की आराधना करने। समूचा वातावरण भक्ति और समर्पण भावों से तरंगित हो गया। इस प्रकार शंकराचार्य ने दिग्विजय कर अद्वैत मत की पुनर्स्थापना की। हम अकसर भूल जाते हैं कि हारे हुए राज्य को वापस करना आसान है, जबकि भुला दी गई संस्कृति और बिखरे समाज को पुनर्जीवित तथा व्यवस्थित करना किसी दैवी शक्ति अथवा अवतारी पुरुषों का ही कार्य होता है। आचार्य बौद्धों के पवित्र तीर्थ गया में पधारे। विरोधाभास लगता है कि एक ओर तो बौद्ध दार्शनिकों के शून्यवाद को आचार्य ने अपने मायावाद से परास्त किया, वहीं दूसरी ओर भगवान बुद्ध को श्रीविष्णु के नौवें अवतार के रूप में प्रतिष्ठत किया। एक महापुरुष ही दूसरे महापुरुष की गरिमा को पहचानता है। इससे वैदिक धर्म को मानने वालों और बौद्ध मतावलंबियों के बीच जो दूरी पैदा हो गई थी, वह कम हुई। साथ ही भगवान बुद्ध के नीति और साधनापरक उपदेशों को समझने के प्रति विद्वानों का रुझान बढ़ा। बौद्ध तांत्रिक को परास्त करने के बाद आचार्य ने शाक्तों के गढ़ असम की ओर रुख किया। वहां अभिनव गुप्त नामक तांत्रिक से, जिसने ब्रह्मसूत्र पर शक्तिभाष्य लिख कर अद्वैतमत का खंडन किया था,आचार्य का जबरदस्त शास्त्रार्थ हुआ। अभिनव गुप्त और अन्य तांत्रिकों को आचार्य की विद्वत्ता के सामने मस्तक झुकाना ही पड़ा था। लेकिन अभी इसका अहंकार नहीं टूटा था। रस्सी तो टूट गई थी, ऐंठन नहीं गई थी। अभिनव गुप्त ने आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया, लेकिन वह उनकी चाल थी। वे समझ चुके थे कि तंत्र मत की स्थापना आचार्य के रहते हुए संभव नहीं है। अहंकार कैसे एक बुद्धिमान और विद्वान को दुष्कर्म करने के लिए विवश कर देता है, इसका साक्षात उदाहरण थे अभिनव गुप्त। उन्होंने आचार्य शंकर पर अभिचार कर्म करना प्रारंभ कर दिया, जिससे उन्हें भगंदर रोग हो गया। असहनीय वेदना में भी आचार्य ने अपने कार्य को नहीं छोड़ा, लेकिन रोग बढ़ने लगा। सभी उपचार निरर्थक सिद्ध हो रहे थे। इस बात से पद्मपाद को हैरान परेशान देखकर उनके इष्ट भगवान नृसिंह ने स्वप्न में उन्हें रोग का मूल कारण बता दिया।  आचार्य के सामने पद्मपाद ने जब इस संदर्भ में निवेदन किया, तो आचार्य का कहना था, प्रत्यभिचार से नर हत्या का पाप लगेगा। संन्यासी के लिए यह उचित नहीं है। जबकि पद्मपाद का मानना था आपकी जीवन रक्षा के लिए मुझे अनंत नरक में भी जाना पड़े तो मैं तैयार हूं। शिष्य की  आस्था को आचार्य ने प्रारब्ध समझ कर स्वीकार कर लिया। पद्मपाद द्वारा किए गए प्रत्यभिचार से अभिनव गुप्त के शरीर में भगंदर के लक्षण पैदा हो गए। भेद खुलने के भय से वे वहां से भाग खड़े हुए। कुछ दिनों में आचार्य रोगमुक्त हो गए जबकि अभिनव गुप्त को उनके अपराध का दंढ मिल गया। उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद अन्य तांत्रिक भी समझ गए कि साधना का गलत कार्य के लिए किया गया प्रयोग दुखद और मृत्युकर होता है। दूसरों का अहित करके अपने कल्याण की कामना करना नादानी नहीं, तो ओर क्या है। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में देवार्चन नहीं हो रहा, यह जानकर आचार्य को आश्चर्य हुआ।