विवेक चूड़ामणि

गतांक से आगे…

आचार्य ने मंदिर के प्रांगण में ही लोगों को संबोधित किया। इससे वैदिक धर्म को मानने वालों में जागृति आई। नेपालराज भी आचार्य के मंतव्य से प्रभावित हुए। फलस्वरूप पशुपतिनाथ मंदिर में देवाचर्न का ही शुभारंभ नहीं हुआ, राजकोष से अन्य देवी-देवताओं के पूजास्थलों का भी निर्माण हुआ। पंचदेवोपासना और यज्ञ आदि वैदिक कार्योंकी पुनर्स्थापना हुई। विपक्षी विद्वानों ने तरह-तरह से आचार्य की नेपाल यात्रा में रोड़े अटकाए, यहां तक कि उन्हें जान से मारने का भी प्रयास किया, लेकिन सद्-संकल्प के साथ क्योंकि स्वयं नारायण होते हैं, इसलिए आचार्य को कोई हानि नहीं पहुंचा सका। आचार्य ने नेपाल में सनातन धर्म और वेदांत सिद्धांत की महिमा का जमकर प्रचार किया। इसके बाद आचार्य ने उत्तराखंड की पावन भूमि की ओर प्रस्थान किया। गुरु गौड़पादाचार्य के दर्शनों के बाद आचार्य का मन ब्रह्म प्रवृत्ति से उपराम हो रहा था। वे 32 वर्ष के हो चले थे अर्थात महर्षि व्यास से मिला हुआ समय भी पूर्ण हो रहा था। इस बात को आचार्य के शिष्य भी महसूस करने लगे थे। आचार्य उन्हें सदैव आत्मपरायण और आत्म स्थित होने की ही प्रेरणा देते रहते थे। शरीर पर उनकी पकड़ छूटती जा रही थी। उनका कार्य संपन्नता की ओर था। आचार्य ने संपूर्ण भारतवर्ष में अद्वैतमत की पुनर्स्थापना की। इस सिद्धांत के अनुसार यह समस्त सृष्टि ब्रह्मरूप ही है, न कोई बड़ा है न कोई छोटा। व्यवहार की दृष्टि से सब अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन कर रहे हैं। कर्मों को जब सकाम किया जाता है, तो भोग्य पदार्थों की प्राप्ति होती है,लेकिन जब कर्म निष्काम भाव से, कर्त्तव्य के रूप में किए जाते है, तो इनसे मन शुद्ध होता है और परमसत्य की अनुभूति होती है। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। मुक्ति का साधन ज्ञान है, अद्वैत ज्ञान। इसी के साथ आद्यशंकराचार्य ने संन्यासी संघ को भी एक सुव्यवस्था थी। उन्होंने भारत के चार प्रांतों में चार मठों की स्थापना की। दक्षिण में शृंगेरी(रामेश्वरम धाम) पश्चिम में शारदा मठ(द्वारिका मठ), पूर्व में गोवर्धन मठ (पुरी धाम) और उत्तर में ज्योर्तिमठ (ज्योतिर्धाम)। इन पर उनके चार प्रमुख शिष्य क्रमशः सुरेश्वराचार्य, हस्तामलकाचार्य, पद्मपदाचार्य और तोटकाचार्य अधिपति नियुक्त किए गए। ये चारों मठ यजु, साम, ऋक और अर्थव वेदों का संरक्षणस करेंगे, आचार्य ने यह भी आदेश दिया। इस महान कार्य के बाद आचार्य बद्रीधाम की ओर निकल पड़े। वहां पहुंचकर उनके रोम-रोम से आनंद की हिलोरें वातावरण को अपनी मधुर तरंगों से आह्लादित करने लगीं। भगवान के श्रीचरणों में विश्राम का अनुभव था यह। भगवान हर श्रीहरि का सान्निध्य पाकर आत्मविभोर हो गए थे। आचार्य ने वहां हरिमीडे स्तोत्र से भगवान हरि की वंदना की। विद्वानों के अनुसार यह उनकी अंतिम रचना है। बद्रीधाम में कुछ दिनों तक निवास करने के बाद आचार्य अपने शिष्यों के साथ केदारधाम की ओर चल पड़े। केदारधाम की यात्रा में उनका एक-एक कदम बाहर की नहीं अंतर्मन की, अलौकिक ऊंचाइयों का संस्पर्श करने लगा था। परमनिर्विकल्प में स्थित होने की उनकी यह एक लीला थी। शिष्य उनकी आंतरिक स्थिति को देखकर भविष्य का अनुमान लगा रहे थे।  शिष्यों के हृदय की बात को जानते हुए आचार्य ने एक दिन कह ही दिया, वत्स इस शरीर का कार्य अब संपन्न हो गया है। इसके बाद शिष्यों को शुभ आशीर्वाद देकर वे ध्यानस्थ हो गए। मान्यता के अनुसार इसी अवस्था में वे सशरीर केदारनाथ में विलीन हो गए।