विश्वकर्मा पुराण

उसे कुछ भी समझ में न आने से इधर से उधर दौड़ा-दौड़ करने लगी। भयंकर किलकारियों के साथ दर्द भरी हुई आवाजों से रक्षा की पुकार के अति नादों को सुनकर समाधि में स्थित ऋषि-मुनियों की समाधि छूट गई। अपने-अपने आसन के ऊपर से उठकर स्वस्थ हुए उन ऋषियों ने जब प्रलयकाल के समान पवन का ये तूफान देखा, तब उनको भी प्रजा के रक्षण का कोई भी मार्ग न दिखा और इसलिए प्रजाजनों के रक्षण का मार्ग जानने के लिए वह बद्रिकाश्रम की ओर चल पड़े। बद्रिकाश्रम में आद्र ऋषि नारायण सृष्टि के कल्याण के लिए दस लाख वर्ष तक चलने वाला ऐसा उग्र तप कर रहे थे। सब ऋषि तूफान में लड़खड़ाते हुए तथा एक-दूसरे से टकराते हुए इस तरह भयंकर अंधकार में से मार्ग ढूंढते हुए बद्रिकाश्रम की ओर आ रहे थे। मार्ग में ही उनका नारद महर्षि से मिलाप हुआ। परस्पर कुशलता के समाचार पूछते हुए सब ऋषियों ने नारद जी से सृष्टि के ऊपर आए हुए महान भय का निवेदन किया और उन्होंने नारदजी से कहा कि वह भी उपाय ढूंढने के लिए बद्रिकाश्रम जा रहे हैं तथा भगवान नारायण का समाचार पूछा। ऋषियों को इस प्रकार सुनकर महर्षि नारद बोले, हे ऋषियों! इस समय तो प्रलयकाल की हवा से गतिमान हुए समुद्र का जल बद्रिकाश्रम के चारों ओर योजनों तक की भूमि को अपने में समाया हुआ आगे बढ़ रहा है, केवल नर-नारायण प्रभु की तपस्या के प्रभाव से वह जल आश्रम को किसी प्रकार की क्षति नहीं कर सकता, परंतु हजारों योजन के विस्तार में फैले हुए इस प्रलयकाल में आगे-आगे बढ़ते जल के अत्यंत वेग वाले प्रभाव के विरुद्ध तुम बद्रिकाश्रम नहीं जा सकते, परंतु सबके हृदय में निवास करने वाले प्रभु की आज्ञा से मैं तुम्हारे पास आया हूं। बद्रिकाश्रम में तपस्या कर रहे समस्त विश्व के नायक श्री नारायण ने इस भयंकर प्रलयकाल से समस्त पृथ्वी को गोद में रखने की इच्छा वाले ऐसे इस अति वेग वाले जल के द्वारा तुम्हारा तथा प्रजा का रक्षण करने का मार्ग बताने के लिए ही अपनी समाधि छोड़कर मुझे तुम्हारे पास भेजा है तथा प्रलयकाल का जल आश्रम को छोड़े उससे पहले मुझे वहां से विदा करके आदि नारायण स्वयं तुरंत ही समाधि में लीन हो गए हैं और जैसे ही मैं आश्रम के बाहर निकला कि तुरंत ही समुद्र का अगाध जल आश्रम के चारों ओर घिर गया। नारायण भगवान ने मुझे जिस प्रकार आज्ञा की है, वह तुम सुनो। पास में ही प्रलयकाल को जानकर जब बद्रिकाश्रम में रहे हुए उन नारायण प्रभु की मैंने स्तुति की, तब उन्होंने अपनी समाधि क्षण भर के लिए छोड़ी और मुझसे वह बोले, हे वत्स! प्रलयकाल के बादल चारों तरफ मंडरा चुके हैं। थोड़ी ही देर में प्रलय का पवन शुरू होगा तथा समुद्र का जल बड़े पर्वतों की ऊंचाई से उछलते हुए मोर के रूप में बदलकर वह पवन उसको पृथ्वी की तरफ घसीट लाएगा और पवन के द्वारा ही समुद्र का अगाध जल सारी पृथ्वी को गोद देकर इस प्रलय के भय से व्याकुल हुई प्रजा इस भयंकर चीत्कार के साथ में रक्षा के लिए पुकार करती हुई चारों दिशाओं में दौड़ रहा है।  उस प्रजा की रक्षा का उपाय खोजने के लिए ऋषि लोग इस तरफ आ रहे हैं। हे नारद! तुम यहां से शीघ्रता से उत्तर दिशा की ओर जाओ और यहां आ रहे उन ऋषियों को रास्ते में ही रोक दो तथा उनको मेरी आज्ञा से इलाचल के ऊपर रवाना कर दो प्रभु तुरंत ही फिर समाधि धारण करके बैठ गए। नारदजी के ऐसे वचन सुनकर ऋषि बोले, हे ब्रह्मपुत्र महर्षि नारद! तुम परम कृपालु की क्या आज्ञा है? वह आप बताओ इस संसार के प्राणियों के रक्षण के लिए अब हमको क्या करना है, उसका आप हमको मार्ग दर्शन कराओ। इस समय हमारे मन में तुम प्रभु तुल्य ही हो, फिर भी इस समय तो प्रभु ने तुमको हमारे पास भेजा है, इसलिए अब हमको क्या करना वह आप कहो।