श्रीशुकदेव जी

शुकदेव वेदव्यास के पुत्र थे। वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्ति के लिए वन में चले गए थे। इन्होंने ही परीक्षित को ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ सुनाया था। शुकदेव जी ने व्यास से महाभारत भी पढ़ा था और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गए थे।

जन्म कथा- इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएं मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वाटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। विरजा क्षेत्र के पितरों के पुत्री पीवरी से शुकदेव का विवाह हुआ था। एक कथा ऐसी भी है कि जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक (पालतु तोता) भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। संयोगवश शुक (तोता)भी वहां बैठकर कथा श्रवण कर रहा था। जब पार्वतीजी सो गईं, तब उस शुक ने बीच-बीच में हुंकारी भरना शुरू कर दिया। इसलिए शंकरजी को पार्वतीजी के सो जाने का पता नहीं चला और वे अनवरत कथा सुनाते रहे। इस प्रकार उस शुक ने पूरी कथा सुन ली। जब पार्वतीजी जागीं, तो उन्होंने शंकरजी से कहा, प्रभो मैंने इस वाक्य के बाद से कथा नहीं सुनी है, क्योंकि मुझे नींद आ गई थी। शंकरजी के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने वहां उपस्थित अपने गणों से कहा, आखिर कथा के बीच में कौन हुंकारी भर रहा था। शीघ्र पता लगाओ। गणों ने वृक्ष पर बैठे शुक की ओर इशारा किया, तब शंकरजी उसको मारने के लिए त्रिशूल लेकर दौड़ पड़े। वह शुक दौड़कर व्यासजी के आश्रम में आया और जम्हाई लेती हुई उनकी पत्नी के मुख में सूक्ष्म रूप बनाकर प्रवेश कर गया। शंकरजी ने व्यासजी से कहा कि मैं वाटिका का त्रिशूल से संहार करना चाहता हूं। व्यासजी ने कहा, इसका अपराध क्या है? तब शंकरजी ने कहा, इसके मुख में प्रविष्ट शुक ने अमर कथा सुन ली है। व्यासजी हंसते हुए बोले, तब तो ये अमर हो गया। भगवान शंकर वापस लौट गए। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे ‘हा’ पुत्र! पुकारते रहे, किंतु इन्होंने उन पर कोई ध्यान न दिया और अपनी राह पर चल पड़े।

कृष्णलीला से आकर्षित- श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गांवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव ‘श्रीमद्भागवत’जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किंतु ये मिलते ही नहीं थे। व्यास ने ‘श्रीमद्भागवत’ की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिए जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बंधकर शुकदेव अपने पिता श्रीव्यास के पास लौट आए। फिर उन्होंने ‘श्रीमद्भागवत महापुराण’ के अठारह हजार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास के आदेश पर शुकदेव महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज जनक के पास गए और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया करते हैं।