साधना का अर्थ

श्रीराम शर्मा

साधना चाहे घर पर की जाए अथवा एकांतवास में रहकर, मनःस्थिति का परिष्कार उसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। साधना का अर्थ यह नहीं कि अपने को नितांत एकाकी अनुभव कर वर्तमान तथा भावी जीवन को नहीं, मुक्ति मोक्ष को, परलोक को लक्ष्य मानकर चला जाए। साधना विधि में चिंतन क्या है, आने वाले समय को साधक कैसा बनाने और परिष्कृत करने का संकल्प लेकर जाना चाहता है, इसे प्रमुख माना गया है। व्यक्ति, परिवार और समाज इन तीनों ही क्षेत्रों में बंटे जीवन सोपान को व्यक्ति किस प्रकार परिमार्जित करेंगे, उसकी रूपरेखा क्या होगी, इस निर्धारण में कौन कितना खरा उतरा इसी पर साधना की सफलता निर्भर है। कल्प साधना में भी इसी तथ्य को प्रधानता दी गई है। एक प्रकार से यह व्यक्ति का समग्र काया कल्प है, जिसमें उसका वर्तमान वैयक्तिक जीवन, पारिवारिक गठबंधन तथा समाज संपर्क  तीनों ही प्रभावित होते हैं। कल्प साधकों को यही निर्देश दिया जाता है कि उनके शांतिकुंज वास की अवधि में उनकी मनःस्थिति एकांत सेवी, अंतर्मुखी, वैरागी जैसी होनी चाहिए। त्रिवेणी तट की बालुका में माघ मास की कल्प साधन फूस की झोपड़ी में संपन्न करते हैं। घर परिवार से मन हटाकर उस अवधि में मन को भगवद् समर्पण में रखते हैं। श्रद्धा पूर्वक नियमित साधना में संलग्न रहने और दिनचर्या के नियमित अनुशासन पालने के अतिरिक्त एक ही चिंतन में निरत रहना चाहिए कि काया कल्प जैसी मनःस्थिति लेकर कषाय कल्मषों की कीचड़ धोकर वापस लौटना है। इसके लिए भावी जीवन को उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने का ताना बाना बुनते रहना चाहिए। व्यक्ति, परिवार और समाज के त्रिविध क्षेत्रों में जीवन बंटा हुआ हैं, इन तीनों को ही अधिकाधिक परिष्कृत करना इन दिनों लक्ष्य रखना चाहिए। इस संदर्भ में त्रिविध पंचशीलों के कुछ परामर्श क्रम प्रस्तुत हैं। भगवान बुद्ध ने हर क्षेत्र के लिए पंचशील निर्धारित किए थे। प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार है। प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य काम काजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घंटा कमाने, सात घंटा सोने, पांच घंटा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरांत चार घंटे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घंटे तो होने ही चाहिए। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास संभव होता है। आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ाएं। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगाएं। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धांत समझें।