आत्म पुराण

यं न सन्तंन सन्तं नाऽश्रुतं बहुश्रुतं।

न सुर्वृतं नदुवृतं वेदकश्चित्स ब्राह्मणः।

अर्थात-‘इस जगत में जिस व्यक्ति कोई श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ मूर्ख या पंडित शास्त्रानुकूल या शास्त्र विरुद्ध रूप में नहीं जान सकता वही ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण है। इस संबंध में एक दृष्टांत दत्तात्रेय स्वामी का प्रसिद्ध है। किसी समय वे स्वामी नर्मदा के किनारे बैठे थे। वे पूर्ण युवावस्था में थे, सूर्य समान उनके शरीर की कांति थी। उन्होंने एक हाथ में संन्यासियों का दंड और दूसरे हाथ में मदिरा का पात्र ले रखा था। एक सुंदर मदिरा पिए हुए स्त्री उनके वाम भाग में स्थिर थी और वे बार-बार उसके मुख को देखते जाते थे। वे उस स्त्री को अद्वितीय ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। इस प्रकार का आचरण करते हुए उन दत्तात्रेय स्वामी को वहां के चक्रवर्ती राजा सहस्रबाहु अर्जुन ने देखा तो वह इसी संशय में पड़ गया कि ये कौन है और किस कारण ऐसा व्यवहार कर रहे हैं। शास्त्रकार ने ऐसे आचरण का रहस्य प्रकट करते हुए कहा है-’

अभिमानं सुरायानं गौरवं घोर रीरवं।

प्रतिष्ठा सूकरी विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत।

अर्थात-‘अभिमान को मदिरा के समान जान कर, गौरव को रौरव नरक के समान समझ कर तथा सांसारिक प्रतिष्ठा को शूकर की विष्ठा के समान मानकर जो इनकी त्याग देता है वही सुख को प्राप्त होता है।’ क्योंकि जिस मनुष्य को संसार में बहुत अधिक प्रतिष्ठा मिल जाती है तो उनके पास सदैव संसारी लोगों की भीड़ जमा रहती है, जिससे उनका चित्त भी बहिर्मुख हो जाता है और जीवन मुक्ति का सुख जाता रहता है। फिर ऐसी स्थिति में अभिमान का उत्पन्न होना भी संभव होता है। इस प्रकार विचार करके दत्तात्रेय आदि ब्रह्मवेत्ता पुरुष संसारी लोगों की भीड़भाड़ से बचने के लिए बाहर से विपरीत आचरण भी करते रहते हैं। वे महापुरुष मन से समस्त विकारों से परे होते हैं और इस कारण उन पर किसी भली बुरी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर जो अन्य नौसिखिया लोग ऐसे महापुरुषों के उद्देश्य को न समझकर उनकी नकल करने लगते थे, वे हानि ही उठाते हैं। जैसे शिवजी ने समस्त विश्व की रक्षा के लिए अपने योग के प्रभाव से हलाहल विष पी लिया। इसको देख कर यदि कोई योग से रहित व्यक्ति विष पी लेगा, तो मृत्यु को ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार जो अज्ञानी पुरुष महान व्यक्तियों की स्पर्धा से उनके वाह्य आचरणों की नकल करते हैं वे प्रायः घाटे में ही रहते हैं। वे ब्रह्म निष्ठ व्यक्ति तो चाहे जप-तप करते हों और चाहे किसी सांसारिक व्यवहार में लिप्त हों, तो भी वे समाधि अवस्था में ही रहते हैं, जैसा कि शास्त्र में भी कहा है-

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।

यत्र यत्र मनोयाति तत्र तत्र समधयः।

अर्थात-मैं ब्रह्म रूप हूं, इस प्रकार की आत्म साक्षातकार की वृत्ति जब अंतरंग में उत्पन्न हो जाती है और इसके फलस्वरूप मनुष्य का देहाभिमान नष्ट हो जाता है, तो फिर उसका मन जहां-जहां जाता है, वहां वह समाधि में ही रहता है। हे शिष्य! जैसे पांच वर्ष तक के बालक के लिए शास्त्रों का विधि निषेध प्रभावशाली नहीं होता। यह विधि-निषेध उन्हीं पुरुषों के लिए अनिवार्य माना जाता है, जिनके भीतर भेदभाव से संबंधित अविद्या का अस्तित्व होता है, पर वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष तो संसार में एक तत्त्व के सिवाय कुछ देखते ही नहीं।