हर साल की तरह
पहाड़ों पर जले जंगल
घाटी से चोटी तक जाते हुए
ठंडी बयार फिर नहीं बही
जलती सांसों जैसी हवा ने घेर लिया
घुटता हुआ दम आदत हो गई
फिर भी सपने देखने का गुनाह करते रहे।
बहुमंजिली इमारत के शीर्ष पर बैठा
दीर्घकाय भारी भरकम अल्प बूझ मसीहा
नीचे हर मंजिल पर बैठे चतुर सुजानों को
लिखने-पढ़ने की राह दिखाता रहा।
इससे बनी शिक्षा नीति धरती पर चारों शाने गिरी है।
बरसों से
निरक्षर भट्टाचार्य उस पर
अपने भाषणों का पैबंद लगा रहे हैं।
सुनाए शिक्षा क्रांति हो गई
तभी नौजवान अंधेरी घाटियों से
रोजगार की रोशनी के टूटे पुल पर ठिठके
भाषा के ज्ञान की गुहार लगा रहे हैं।
उन्हें समझा दिया है
छोड़ो यह पचड़ा
देश को बदलना है
क्रांतियां करनी हैं
रोशन राहों पर चलना है।
यह जंगली विरासत तुम्हारे बस की नहीं।
इसे सत्ता की मीनारों के पास गिरवी
रख दो।
चलो पहाड़ चलें
वहां आजकल सप्ताह में दो छुट्टी वाले
पर्यटक आते हैं
रास्ते का ट्रैफिक जाम डोलकर आते हैं।
पहाड़ पर गर्म होती हवा
सूखते नाले देखते हैं
सिपाही का चालान भुगतते हैं
और देते हैं पहाड़ प्रवेश की बढ़ती फीस।
छुट्टी खत्म हो गई
लौटें
तुम्हारे बस में तो कुछ भी नहीं
न पहाड़ पर न मैदान पर
इसलिए आओ, कहीं भी रुक जाएं
खेल चैनल पर विश्व कप क्रिकेट देखें
धोनी भी बलिदान टैग उतार कर फिर खेलने लगा
क्यों न हम भी सपना देखना छोड़,
जीना सीखें
निरा सूखा जीना
पानी बिना
हाहाकार प्यास
लगातार बिजली कट में जीना।
उधर फिर बोरवैल में एक बच्चा गिर गया
उसे निकालने के लिए गलत दिशा से
सुरंग खुदी।
आओ इस सुरंग में भटकें
बेवफा बढ़ती गर्मी को सजदा करें
डेंगू के लौटने का इंतजार करें
हर साल की तरह।
लेकिन कब तक?
-सुरेश सेठ