गालिब और प्रार्थी की अभिव्यक्ति में काल की भिन्नता

काव्य की लेखन विधा को लेकर मिर्जा गालिब की तरह आज का कवि चिंतित नहीं है। वह हिंदी तथा उर्दू में एक जैसे शिल्प अपनाने लगा है। अब तो इसके मापदंड की आवश्यकता भी नहीं रही है, जो गालिब के दौर में अत्यधिक जरूरी थी। सब कुछ बदल चुका है।

महाकाव्य लेखन के वापसी सफर की समतल पगडंडियों ने आधुनिक कवियों को शिल्प की चिंता से मुक्त कर दिया है और खंड काव्य के नाम पर हल्की-फुल्की रचनाओं को देते हुए मुक्तक छंद की वीथिका से और पीछे हटकर क्षणिकाओं को अस्थायी ठौर बना दिया है। न जाने आगे-पीछे हटते-हटते कवियों की लेखनी को किस कोण पर विराम मिलेगा। हिंदी छंद शास्त्र तथा उर्दू के उस्लूब की पेचीदगियों से निजात पाता जा रहा है आज का कवि। प्रार्थी के उर्दू काव्य रचना संसार में ऐसा तो नहीं है, फिर भी कहना होगा कि उन्होंने नवीनता के साथ कहीं न कहीं समझौता अवश्य किया है। प्रार्थी मूल रूप में उर्दू तथा पहाड़ी के शायर थे। उर्दू में काव्य विधा का अपना सौंदर्य है और शिल्प भी। भले ही इस परंपरा में कहीं भी काफिया तथा रदीफ को प्रार्थी ने नहीं छेड़ा है तथा अपनी लेखनी को प्राचीन परिधि और मौलिकता के दायरे में ही रखा है। भाव और अनुभुतियों का सामंजस्य यथावत है। उनके लेखन में वैचारिक परिपक्वता या सरसता का उदात्त और प्रकृति सिद्ध का सहज गुण भी विद्यमान रहा है।

इस पर जाने-माने उर्दू के प्रकांड विद्वान डा. शबाब ललित प्रार्थी के काव्य को लेकर ‘आइनों के रूबरू’ पुस्तक में लिखते हैं, ‘शायरी मजमुआ वदूज-ओ-अदम में जा-बजा मौजूद है, लेकिन चांद ने जो भी बात कही है, वह जदीद लहजे में कही है। उर्दू गजल की रवायात का एहतराम करते हुए उन्होंने जदीद रुझानात और नए शेअरी असालीब ओ-लफ्जयात को भी समोया है। इनकी गजलों को रबायती तखलीकात नहीं कहा जा सकता। उन्होंने अपने शेर में तस्लीम किया है और फरमाते हैं : नए शौऊर के तपते हुए अलाव में हर एक जिस्म तपता दिखाई देता है।

कहना होगा कि हिमाचल के अन्य श्रेष्ठ उर्दू विद्वानों ने प्रार्थी की गजलों को उत्कृष्ट माना है। सच तो यह है कि चांद कुल्लुवी ने अपनी असीम वैचारिक शक्ति और गजल कहने के पांडित्य के कारण निजी काव्य संसार की रचना की हुई थी और उनके कई अनुयायी भी बने थे।

रचनात्मक कौशल ही उनकी पूंजी थी। उनके जीवन सौंदर्य के प्रति अगाध श्रद्धा (जिसे उन्होंने बार-बार माना है) के तात्त्विक अन्वेषण का सफर द्वंद्वमयी और विषम परिस्थितियों का भंडार है। शायद ये विषमताएं ही उनके लेखन में सौंदर्य के प्रतिमान ले आई हैं या दूसरा पक्ष कि सौंदर्य के आशातीत उन्मेषों ने ही जिजीविषा जागृत कर उनके हाथ में लेखनी थमाई थी।

आयुर्वेद

प्रार्थी आयुर्वेद के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने की धुन में रहते थे। अखिल भारतीय आयुर्वेद महासम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने आयुर्वेद पर एक वृहद गं्रथ तैयार करने की योजना बनाई थी और गं्रथ के संपादन में स्व. बंशी राम शर्मा जो उस समय कला संस्कृति अकादमी के सचिव थे, को भी सम्मिलित करने का सुझाव दिया था। ये प्रार्थी ही थे जिन्होंने दो कुलियों के द्वारा आयुर्वेदिक सम्मेलन पत्रिकाओं की पुरानी प्रतियां उपयुक्त सामग्री के चयन हेतु उनके पास भेज दी थीं, परंतु बाद में यह कार्य भी अधूरा रहा। उनके अध्यक्ष पद के दौरान शिमला में एक विशाल आयुर्वेदिक सम्मेलन हुआ और इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में हिमाचल प्रदेश की प्राचीन प्लास्टिक सर्जरी विद्या के संबंध में एक खोजपूर्ण लेख लिखा था। 

पत्रकारिता

वास्तव में प्रार्थी ने जिस काम में हाथ डाला, वही कीर्तिमान और इतिहास बन गया। उन्होंने लाहौर से वापस आने पर ‘नीलकमल प्रकाशन’ के नाम से अखबार निकालना शुरू किया जिसमें एक कॉलम ‘लुहरी से लींगटी तक’ क्रमशः हर संस्करण में छपता था, जिसका लोग बेसब्री से इंतजार करते थे। सच मानो तो प्रार्थी की पत्रकारिता का यह कॉलम एक ऐतिहासिक दस्तावेज था और उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचायक भी, जिसकी वर्तमान में साप्ताहिक टीवी सीरियलों की भांति अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहती। इसके बावजूद कहना पड़ता है कि आर्थिक संकट के कारण यह अखबार ज्यादा देर तक चल नहीं सका। प्रार्थी ने धर्मशाला से भी साप्ताहिक पत्रिका ‘जन्मभूमि’ को आरंभ किया। उनके साथ कमल होशियारपुरी, स्वामी हीरानंद और जगदीश कौशल ने मिलकर संपादकीय का काम संभाला। भगत राम शर्मा, एमएलए, अवैतनिक प्रबंध-निर्देशक नियुक्त किए गए। पत्रिका बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गई। उस समय की जानी-मानी हस्ती जोशामल सियानी ने इस पत्रिका को बड़े ध्यानपूर्वक और शौक से पढ़ना आरंभ किया तथा इसके लिए दो अश-आर बतौर अहसानमंद होकर भेजे।

वतन के जर्रे-जर्रे से जन्मभूमि को उल्फत है

धर्मसाला जाहिर में है इसकी जन्म भूमि

कभी लगजिश न आई इसके पाए हस्तकामत को

फलक भी रात-दिन घूमा जमी भी रात दिन घूमी।

जैसा कि प्रतिभाओं के साथ होता है, आर्थिक संकट के कारण आखिर यह पत्रिका भी बंद करनी पड़ी। तत्पश्चात कुछ समय के लिए कामरेड ब्रह्मानंद ने ‘डोगरा संदेश’ के नाम से एक पत्रिका शुरू की। यह पत्रिका पहाड़ी इलाकों को हिमाचल में शामिल करने के लिए काम करती रही और जब पंजाब से कटकर यह पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल में मिल गए तो कामरेड ब्रह्मानंद को असेंबली में मनोनीत किया गया।  

जब तक कामरेड जिंदा रहे, यह पत्रिका चलती रही, परंतु इनकी असमय मृत्यु के पश्चात यह भी बंद हो गई। जैस ही देश आजाद हुआ, अंग्रेजों के जाने से लोगों के दिलों से सर्वव्यापी ृडर की भावना भी समाप्त हो गई। प्रार्थी ने उर्दू भाषायी अखबार ‘कुल्लू वैली’ आरंभ की। जिसमें इनके लेख और नज्में छपतीं। परंतु यह अखबार कुछ समय ही चला। इस अखबार के संपादकीय प्रार्थी की नुकीली लेखनी के कारण स्वतंत्र भारत के हर नागरिक की आशाओं और आकांक्षाओं की झलक होते। इसे बंद करने के पीछे भी अर्थाभाव मुख्य कारण था। 1952-57 में प्रार्थी पंजाब विधानसभा के सदस्य रहे। राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहने के कारण अपना अधिक समय और ध्यान साहित्यिक सृजन की ओर नहीं लगा सके। 1957 का चुनाव हारने के बाद इनके पास पर्याप्त समय था। उन्होंने यह समय साहित्यिक सृजन, लोक साहित्य के अध्ययन और लोकगीत, संगीत और नृत्य पर लगाया। उन्हीं दिनों हीरानंद नामक एक पत्रकार कुल्लू से दि ट्रिब्यून, मिलाप और प्रताप को खबरें भेजा करते थे।

प्रार्थी ने उनके सहयोग से एक बार फिर एक पाक्षिक पत्रिका ‘देवभूमि’ उर्दू भाषा में चलाई। यह काफी अरसे तक छपती रही, परंतु 1962 के चुनाव आने पर इसे बंद करना पड़ा। अखबार निकालना भले ही आज इतना कठिन नहीं रहा, जितना कभी कम्प्यूटर युग के आने से पहले था। परंतु आज भी यह एक सफेद हाथी पालने से कम नहीं। छोटी-छोटी पत्रिकाओं का भविष्य सदा अनिश्चित रहा, फिर भी कुछ अपवाद हैं जिन्होंने अपना मार्ग स्वयं निर्धारित किया है और बाजारवादी मानसिकता को व्यावसायिक दृष्टि से अपने को स्थापित भी किया है, भले ही उनकी गिनती नगण्य है।

यह सच है कि प्रार्थी जब तक अखबार चलाते रहे, चाहे वह लाहौर हो, चाहे कुल्लू या धर्मशाला, उनकी आर्थिक दशा अस्त-व्यस्त ही रही। छोटे-छोटे कर्जे चढ़ते ही रहे और उन्हें इस उक्ति ‘एहमद की पगड़ी महमूद के सिर’ से दो-चार होते देखा जा सकता था। और संकट लगभग 1962 तक चलता रहा जब उन्होंने अति-व्यस्त और सक्रिय राजनीति में अपनी भागीदारी और बढ़ा दी। जैसे ही उन्होंने अखबार निकालने बंद किए, उन्हें कर्जदारों से छुटकारा भी मिल गया।

-जयदेव विद्रोही,

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