चकित करती लघु साहित्यिक पत्रिकाएं

राजेंद्र राजन

साहित्यकार

संसाधनों के संकट के बीच लघु साहित्यिक पत्रिकाएं अपनी दमदार उपस्थिति बनाए हुए हैं। वरिष्ठ लेखकों के साथ-साथ युवा रचनाशीलता को पाठकों तक पहुंचाने और साहित्य पर चर्चाओं को पंख देने में अनेक पत्रिकाओं का कलेवर और कंटेंट चकित करते हैं।

कला वसुधा : लखनऊ से छपने वाली कला वसुधा के 4 अंक मुझे प्राप्त हुए। इनमें से दो अंक बलराज साहनी पर केंद्रित हैं तो अन्य दो बुंदेलखंड और नौटंकी को समर्पित हैं। गर्म हवा, दो बीघा जमीन, काबुलीवाला, सीमा व भाभी आदि फिल्मों के जरिए सिनेमा में अलग छाप छोड़ने वाले बलराज साहनी मूल रूप से लेखक थे और पंजाबी में कहानियां लिखते थे। पत्रिका के दो अंकों में बलराज साहनी पर दुर्लभ सामग्री जुटाई गई है, जो आपको गूगल पर भी खोजने से नहीं मिलेगी। मई 1913 में जन्मे बलराज की मृत्यु अप्रैल, 1973 में हुई थी।  उनके बड़े भाई भीष्म साहनी, ख्वाजा अहमद अब्बास, अब्दुल बिस्मलाह के साथ कई लेखकों के संस्मरणात्मक लेख बलराज साहनी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर दिए गए हैं। उनकी कहानियां रमजान, पालिशवाला, वापसी व वापसी, तिलिस्म, जर्रे, ओवरकोट आदि भी विशेषांकों में शामिल हैं। उषा बैनर्जी के संपादन में बुदेलखंड व नौटंकी लोक कलाओं पर शोधपरक सामग्री हमें कबायली संस्कृति के वृहद कैनवास से परिचित करवाती है।

नया ज्ञानोदय ः भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ गत साल बंद होने के कगार पर थी। मंडलोई से पाठक क्षुब्ध थे, क्योंकि पत्रिका की जीवंतता को ठूंठ में बदलने का कारण यह था कि इसकी सामग्री का चयन संपादक के पूर्वाग्रहों या फिर जनवादी विचारधारा को केंद्र में रखकर किया जाता था। रविंद्र कालिया के संपादन काल में ‘नया ज्ञानोदय’ की लोकप्रियता शिखर पर थी और प्रत्येक विशेषांक को पुनः छापना पड़ता था।

दिसंबर, 2018 में नवभारत टाइम्स के संपादक कवि व कथाकार ने जब इस पत्रिका की कमान संभाली तो अपने पहले अंक से ही उन्होंने सबको चकित कर दिया। पराग मांदले की कहानी ‘मुकम्मल नहीं, खूबसूरत सफर हो’ अपने कथ्य, बांध देने वाली भाषा, शिल्प व शैली के बल पर देशभर में चर्चा में आ गई।  ‘मी टू’ की चर्चा के बीच यह कहानी इसलिए भी सराही गई, क्योंकि इसमें ऐसी स्त्री की दमित यौन इच्छाओं को प्रकट किया गया, जो पर पुरुष से सेक्स चाहती है, पर पुरुष इनकार कर देता है। इसी अंक में तोलस्तोय, गोर्की और वान गाग पर बेहतरीन संस्मरण पढ़ने को मिले। जनवरी से जून तक आते-आते मधुसूदन ने ‘नया ज्ञानोदय’ को सामग्री के चयन व लेआउट तथा डिजाइन से इतना अधिक आकर्षक बना दिया कि पाठकों को मृतःप्रायः से पत्रिका पुनर्जीवित होकर हरे-भरे दरख्त के समान मिल गई।

नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, अर्चना वर्मा आदि दिवंगत लेखकों पर विशेषांक छपे तो कहानियों के अलावा कला संगीत, मीडिया पर बेजोड़ लेख पढ़ने को मिले। जून 19 अंक में अकबर, अमीर खुसरो, बाबर लेख के माध्यम से उस गंगा-जमुनी तहजीब को रेखांकित करने का प्रयास हुआ, जहां मुगलों के वक्त गोरक्षा सर्वोपरि थी और हिंदू-मुसलमान सद्भाव के रास्ते खुले थे। इसी अंक में जगजीत बराड़ की पंजाबी कहानी ‘जानने की चाह’ झकझोरती है।

परिकथा : शंकर के संपादन में सूरजकुंड, दिल्ली से छपने वाली त्रैमासिक पत्रिका परिकथा नियमित रूप से छप रही है। महिला विशेषांक जनवरी-मार्च, 2019 खूब चर्चित रहा तो अप्रैल-जून अंक नामवर सिंह पर केंद्रित है।

संपादकीय में नामवर पर टिप्पणी गौरतलब है कि नामवर जी अपने विचारों, मान्यताओं, मंतव्यों पर लगातार पुनर्विचार और परीक्षण करते रहे। 160 पृष्ठों के इस अंक में मधुरेश, विभूति नारायण राय, भारत यायावर, देवी शंकर नवीन आदि के लेख पठनीय हैं तो अधिकांश लेख अकादमिक बौद्धिकता के शिकार हैं।

इस अंक की उपलब्धि नामवर सिंह का साक्षात्कार है, जिसे विश्वनाथ त्रिपाठी प्रज्ञा और राकेश कुमार ने किया है, लेकिन इसमें नामवर नहीं हैं। उन पर बातचीत है। अपनी बिटिया समीक्षा ठाकुर के नाम लिखे गए पत्र नामवर सिंह की ऐसी धरोहर हैं, जिन्हें उन्होंने पाठकों से साझा किया है।

पहल : यह पत्रिका घोषित रूप से मार्क्सवादी या जनवादी विचारधारा को प्रोमोट करने वाली पत्रिका है। कथाकार ज्ञानरंजन के संपादन में ‘पहल’  का 117वां अंक छपा है। यह विचार प्रधान पत्रिका है और अनेक राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दों पर ध्यान खींचती है। किसानों, आमजन, दलित, स्त्री, आदिवासी समाज का दुख-दर्द ‘पहल’ में झलकता है।

जाहिर है हंस की तर्ज पर पहल भी सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध एक बुलंद आवाज है। अभिव्यक्ति के खतरों और असहिष्णुता के दौर में ‘पहल’ जैसी पत्रिका का निर्बाध गति से अपने पाठकों तक पहुंचना सुखद आश्चर्य का एहसास जगाता है। मगर इस पत्रिका का सीमित पाठक वर्ग है। यानी लेखक, लेखक भी अधिकाशंतः प्रगतिशील विचारधारा के और बुद्धिजीवी। नया ज्ञानोदय, हंस की तरह ‘पहल’ आम पाठक की पत्रिका नहीं है।

न ही प्रगतिशील लेखन से बाहर की दुनिया को देखने का चश्मा ‘पहल’ ने ईजाद किया है। यानी अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश या फिर कलावादी लेखकों की जमात शायद भूले से भी पहल में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सकती। वामपंथ या मार्क्सवाद भले ही भारत से विदा हो चुका हो, ‘पहल’ जैसी पत्रिकाओं में यह शिद्दत से मौजूद है। इसमें गलत भी कुछ नहीं है। अंक 117 में पहली बार नए चार कलाकारों को स्थान मिला है।

राजेंद्र श्रीवास्तव, नवनीत नीरव, पंकज स्वामी और पंकज कौरव। ‘पहल’ एक कॉलमनिस्ट पत्रिका है, जिसमें मंगलेश डबराल, जितेंद्र भाटिया, गौरीनाथ, सूरज पालीवाल, विनोद शाही, राज कुमार केसवानी जैसे लेखक बार-बार छपते हैं। इसलिए कि रचनाओं की गुणवत्ता से ‘समझौता’ पहल की फितरत में नहीं है, लेकिन इसमें किरण सिंह जैसी वरिष्ठ लेखिका और हिमाचल की लेखिका इशिता आर गिरीश की ऐसी कहानियां भी छपी हैं, जो संपादक के लिए तो श्रेष्ठ हो सकती हैं, लेकिन पाठकीय स्तर पर वे कमजोर रचनाएं साबित हुई। ‘पहल’ की समस्या यह है कि विचार के नाम पर बार-बार एकरसता से परिपूर्ण रचनाएं परोसी जा रही हैं।

 

लेखक और आलोचक का रिश्ता पति-पत्नी जैसा

जगदीश बाली

साहित्यकार

लेखक और आलोचक के बीच का रिश्ता पति-पत्नी के उस रिश्ते की तरह होता है जिसमें प्रेम के साथ-साथ तलखी व नोक-झोंक भी है, परंतु रहना दोनों को एक साथ ही है। लेखक को मलाल रहता है कि उसकी रचना की ठीक से आलोचना नहीं हुई और आलोचक को मलाल रहता है कि रचना ठीक तरह से नहीं परोसी गई। अकसर जब कोई हमारी रचना की तारीफ या निंदा करता है, तो हम छूईमूई की तरह प्रतिक्रिया करते हैं। किसी ने तारीफ कर दी तो हम फूल कर कुप्पा हो जाते हैं जैसे बच्चे को कोई फूला हुआ गुब्बारा मिल गया हो। अगले ही पल अगर कोई उस रचना की बुराई कर दे तो हम मुंह लटका कर उदास बैठ जाते हैं जैसे किसी बच्चे का वही गुब्बारा कांटा लगते ही फिस्स हो गया हो। जब मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित होकर आई थी तो टिप्पणियों का अंबार लगने लगा। जब भी कोई अच्छी टिप्पणी करता, मैं मन ही मन फूला न समाता था। जब कभी कोई कमियों को उजागर करता तो मैं सोच में पड़ जाता और उदास हो जाता। तभी मुझे किशोर कुमार द्वारा गाया ‘अमर प्रेम’ फिल्म का गाना याद आया-‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इस गाने को सुनते ही मेरी सारी निराशा जाती रही और मैं अपने लिखने के काम में लग गया। अकसर हम आलोचना से इसलिए आहत होते हैं क्योंकि हम प्रशंसा सुनने के आदी हो जाते हैं। जब प्रशंसा नहीं होती तो हमारे अहम को दर्द होने लगता है। मिर्जा गालिब सीख देते हुए कहते हैं- ‘गालिब बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे, ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहे जिसे।’ कहते हैं कि दुनिया में सबसे आसान काम है घूमने वाली कुर्सी पर बैठ कर आलोचना करना। जो कुछ नहीं करते वे यही कमाल करते हैं। परंतु यह बात केवल उन लोगों के लिए कही गई है जो स्वयं तो निठल्ले बैठे रहते हैं और जैसे ही कोई काम करता है, वे अपनी तनकीदों के साथ शुरू हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे बगुला भगत मछली देखते ही उसे लपेट लेता है। परंतु वास्तव में मानव के निजी विकास तथा उसके कामों में निपुणता व उत्कृष्टता के लिए आलोचना का बहुत बड़ा योगदान होता है। तभी तो कबीर जी कहते हैं-‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।’ साहित्य में आलोचना एक मुख्य विधा है। वैसे किसी की साहित्यिक रचना को मापना और उसका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं। परंतु साहित्य या काव्य केवल अपनी अभिव्यक्ति के लिए ही नहीं होता, बल्कि यह लोक जीवन व समाज की व्याख्या और उन्हें प्रभावित करता है। अतः आलोचना का महत्त्व बढ़ जाता है। डा. श्याम सुंदर दास इस ‘व्याख्या की व्याख्या’ को ही आलोचना का नाम देते हैं। इस उद्देश्य में रचना कहां तक खरी उतरती है, यही विश्लेषण आलोचक करता है। परंतु उपयोगी और सार्थक आलोचना के लिए आलोचक का योग्य होना आवश्यक है। ‘लुच’ धातु से बने इस शब्द के मायने आलोचक और आलोचित दोनों को मालूम होने चाहिए। आलोचनाएं समीक्षा या क्रिटिसिज्म निर्पेक्ष भाव से किसी की रचना का गुण व दोषों के आधार पर आकलन करना है। एक आदर्श आलोचक निर्पेक्ष भाव से किसी की रचना को सराहता और ताड़ता है। वह किसी व्यक्तिगत पूर्वाग्रह, ईर्ष्या या दुराग्रह से ग्रसित नहीं होता। वॉल्टर स्कॉट को लॉर्ड बायरन से पहले अंग्रेजी साहित्य का शिरोमणि माना जाता था। परंतु जल्दी ही लॉर्ड बायरन एक कवि के रूप में विख्यात हो गए। एक बार एक आलोचक ने उनकी कविताओं की अखबार में समीक्षा करते हुए कहा, ‘लॉर्ड बायरन जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की कविताओं की चमक के आगे वॉल्टर स्कॉट इंग्लैंड का प्रमुख कवि नहीं हो सकता।’ हैरानी की बात यह है कि यह आलोचक और कोई नहीं स्वयं वॉल्टर स्कॉट थे। यह एक महान लेखक, आलोचक और आलोचना की खूबसूरत बानगी है। लेखक को ज्ञान होना चाहिए कि कौन सा आलोचक उसकी रचना की सही आलोचना कर रहा है। दरअसल जब लेखक कोई नई रचना लिखता है, तो उसे ये मान लेना चाहिए कि रचना सामने आते ही बहुत सारे छिद्रान्वेषी कड़वे बोल बोलने के लिए लालायित रहेंगे। लेखक को इस बात पर खिन्न नहीं होना चाहिए। ये आशा मत रखिए कि जब आप कोई अच्छी रचना लिखेंगे तो लोग मालाएं लेकर आपके स्वागत के लिए द्वार पर खड़े मिलेंगे। बल्कि इसके उलट काफी सारे ऐसे होंगे जो आप की रचना को तार-तार कर बौना साबित करने की कोशिश करेंगे। ऐसा होने पर लेखक को अपनी लेखन प्रतिभा पर शक नहीं करना चाहिए। सचिन तेंदुलकर आलोचना का जवाब अपने बल्ले से देते थे। वैसे ही लेखक अपने बेहतरीन लेखन से ही आलोचनाओं का जवाब देता है। नॉरमन विंसट पील कहते हैं, ‘हमारी समस्या ये है कि आलोचना हमें जितना बचाती है उससे कहीं ज्यादा हम प्रशंसा से नष्ट होते हैं।’ हर एक आलोचक केवल आलोचना के लिए ही आलोचना नहीं करता है। एक उच्च कोटी का आलोचक जौहरी की तरह रचनाओं को जांचता है। उसकी आलोचना सुधार के लिए औषधि का काम करती है। आलोचना में उन्नति के बीज भी छिपे होते हैं। एक काबिल व महान आलोचक के उद्देश्य की बात करते हुए अमरीका के महान पटकथा लेखक फ्रेंक हॉवार्ड क्लार्क ने कहा है, ‘आलोचना पानी की बूंद की तरह मुलायम होनी चाहिए जो मनुष्य के विकास का पोषण करे न कि उसकी नींव को नष्ट करे।’ उधर लेखक को भी चाहिए कि हर आलोचक की खरोंचों से आहत न हो। जैसे काले बादलों से सूर्य की प्रखरता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती, वैसे ही आलोचकों की गैर जरूरी तनकीदों से किसी लेखक की काबिलियत नष्ट नहीं हो जाती। लेखक को आलोचकों के बीच में ऐसे रहना चाहिए जैसे 32 दांतों के बीच में जीभ रहती है।

आलोचना पर विभिन्न विद्वानों के विचार

कभी-कभी मौन रह जाना सबसे तीखी आलोचना होती है। जब आपके अपने द्वार की सीढि़यां मैली हैं तो अपने पड़ोसी की छत पर पड़ी हुई गंदगी का उलाहना न दीजिए।

-कन्फ्यूशियस

आलोचना एक भयानक चिंगारी है, जो अहंकार रूपी बारूद के गोदाम में विस्फोट उत्पन्न कर सकती है और वह विस्फोटक कभी-कभी मृत्यु को शीघ्र ले आता है।

-डेल कर्नेगी

आलोचना वृक्ष की शाखा से प्रायः फूल और कीड़े दोनों को अलग कर देती है।

-रिश्टर

प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई निंदा सुन लीजिए, पर अपना निर्णय सुरक्षित रख लीजिए।

-शेक्सपियर

दूसरे तुम्हारे विषय में क्या सोचते हैं, इसकी अपेक्षा तुम्हारे विषय में अपने विचार अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

-सेनेका 

अक्षरों की महान सेना में आलोचना पहरेदार होती है।

-लंगफैलो

लोग कहते हैं कि हमारी आलोचना भी करिए, पर दरअसल सिर्फ प्रशंसा ही चाहते हैं।

-सोमरसेट माम

किसी की आलोचना मत करो, जिससे तुम्हारी भी कोई आलोचना न करे।

-लिंकन

जरूरी नहीं कि आलोचक आपका दुश्मन ही होता है, वह आपका सच्चा मित्र भी हो सकता है।

-अमित कुमार

जिस प्रकार एक निराश चोर चोरों को पकड़ने वाला बन जाता है, उसी प्रकार निराश होकर लेखक आलोचक बन जाते हैं।

-शैली

आलोचना व्यर्थ होती है क्योकि इससे दोषी प्रायः अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करने लगता है। आलोचना भयावह भी है क्योंकि वह मनुष्य के बहुमूल्य गर्व पर घाव करती है, उसकी महत्ता के भाव को पीड़ा पहुंचाती है और उसके क्रोध को भड़काती है।   

-डेल कर्नेगी

ब्राह्मण स्वराज्य में निवास करता है और उसकी आवश्यकताएं प्रकृति पूरी करती है, वैसे ही आलोचक बुद्धि के स्वराज्य में विचरण करता है और विकल्प का अवकाश ढूंढता है। चिंतन के क्षेत्र में देशी या विदेशी शास्त्र की विचारधारा को चुनौती देना एक आलोचक की बुद्धि की मुक्तावस्था का सूचक है।

-डा. नामवर सिंह

मुक्त-हृदय में मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। इस अनुभूति योग के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंध की रक्षा का निर्वाह होता है।

-आचार्य रामचंद्र शुक्ल

लिंचिंग

लघु कथा

बूढ़ी औरत को जब यह बताया गया कि उसके पोते सलीम की ‘लिंचिंग’ हो गई है तो उसकी समझ में कुछ न आया। उसके काले, झुर्रियों पड़े चेहरे और धुंधली मटमैली आंखों में कोई भाव न आया। उसने फटी चादर से अपना सिर ढक लिया। उसके लिए ‘लिंचिंग’ शब्द नया था। पर उसे यह अंदाजा हो गया था कि यह अंग्रेजी का शब्द है। इससे पहले भी उसने अंग्रेजी के कुछ शब्द सुने थे जिन्हें वह जानती थी। उसने अंग्रेजी का पहला शब्द ‘पास’ सुना था जब सलीम पहली क्लास में पास हुआ था। वह जानती थी कि ‘पास’ का क्या मतलब होता है। दूसरा शब्द उसने ‘जॉब’ सुना था। वह समझ गई थी कि ‘जॉब’ का मतलब नौकरी लग जाना है। तीसरा शब्द उसने ‘सैलरी’ सुना था। वह जानती थी कि सैलरी का क्या मतलब होता है। यह शब्द सुनते ही उसकी नाक में तवे पर सिंकती रोटी की सुगंध आ जाया करती थी। उसे अंदाजा था कि अंग्रेजी के शब्द अच्छे होते हैं और उसके पोते के बारे में यह कोई अच्छी खबर है। बुढि़या इत्मीनान भरे स्वर में बोली, ‘अल्लाह उनका भला करें।’ लड़के हैरत से उसे देखने लगे। सोचने लगे बुढि़या को लिंचिंग का मतलब बताया जाए या नहीं। उनके अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी की बुढि़या को बताएं कि लिंचिंग क्या होती है। बुढि़या ने सोचा कि इतनी अच्छी खबर देने वाले लड़कों को दुआ तो जरूर देनी चाहिए। वह बोली, ‘बच्चो, अल्लाह करे तुम सबकी लिंचिंग हो जाए, ठहर जाओ मैं मुंह मीठा कराती हूं।’ 

-असगर वजाहत

लघु कविताएं

शिखर और ढलान

माना कि पहाड़ ऊंचे होते हैं

और उन पर चढ़ना दुष्कर।

पर पहाड़ पर चढ़ने का अपना ही सुख होता है।

जैसे हम मंजिल पाने के लिए

शिखर पर पहुंचने के लिए

चुनौती स्वीकार कर रहे हों।

ढलान पर उतरते समय

आदमी हारा हुआ महसूस करता है

ढलान पर उतरना

अपने ही फैसले से वापसी जैसा लगता है।

ढलान और शिखर में से एक का चुनाव जरूरी है…निहायत जरूरी।

आशंका

बर्फ  गिरती है

दूर पहाड़ों पर

और मैं, मैदानों का निवासी शीतलहर की आशंका मात्र से

कांप उठता हूं।

फौज की गाडि़यां

भेजी जाती हैं।

किसी प्रदेश में

दंगे भड़कने से रोकने के लिए

और मैं, अपने शांत घर में भी

अशांत हो उठता हूं।

सुपात्र

अरी कोयल

मीठा तो गाया तूने

प्रशंसा भी हो रही थी तुम्हारी

फिर यह क्या हुआ

संगीत प्रतियोगिता का

पहला पुरस्कार

एक बेसुरा कौआ ले उड़ा…

खेल

देखिए

पांव और पेट का खेल

चलते तो हैं

सब जगह पांव

पर

रोटी की तलाश में

ले जाता है पेट।

-कमलेश भारतीय

मोबाइल नंबर-9416047075.