दर्पण पर मूर्छित से

भारत भूषण ‘शून्य’

स्वतंत्र लेखक

साक्षात आकार में निराकार को स्थापित करते हुए हम वहां पहुंच रहे हैं जहां हमारा आकार भी अब आभास होने लगा है। भ्रम की इस चदरिया में कबीर को लपेट डालने की कोशिश-सी। मानो उलटबांसियों को सीधा खड़े करने में सत्ता का लंबवत कोण अपनी प्रशंसनीय कार्यपद्धति पर इतराता हुआ। खुद के लिए गढ़े गए दर्पण में अपने आकार पर मोहित होने की मूर्च्छा-सी। मानो सब सत्ता की अमरबेल अब सत्य के नीम पेड़ पर चढ़ कर दम लेगी। पेट की भूख पर उठे दर्द को नीम हकीम के इलाज पर छोड़कर हम मुत्मइन हो रहे हैं कि यह कौम अपने कथित स्वर्णिमकाल से देश प्रेम का वह काढ़ा ले आएगी जिससे सब बीमारियां दुरुस्त हो जाने वाली हैं। सत्ता की खाज में किंवदंतियों का कोढ़-सा। अपने ही आशियानों को तोड़कर हम नीम बेहोशी के सपनों को लपक लेने के लिए आतुर से। वर्तमान को झुठला देने की अजीब विसंगति-सी, मानो भूतकाल का कोई बेताल आकर हमारी व्यवस्था को ठीक कर देगा। मानो पीपल के बूढ़े पेड़ के नीचे खड़े हो जाने से हमारी सारी व्याधियां खत्म हो जाएंगी। करेले को लौकी और लौकी को अनार बना डालने के नुस्खे का तिलिस्म बाजार में बिक रहा हो। आंख पर छाई काई अब हमारे गौरव गान का कारण हो गई। नेतृत्व के लिए मंचसज्जा ही मानो जीवनदान हो गई। भोंपू होने की कवायद में अपनी आवाज को भुला देने के हठ पर डटे से। व्यंजन बनाने को उतावले लेकिन हो गए दूध फटे से। छाछ को फूंक-फूंक कर जब पीना है, हम दूध को ही उबाले जाने के लिए खड़े से। आइए, आंख और कान को इनकी क्षमता तक पुनः खींच कर लाएं। आइए, अपनी शक्ति को अपनी ही मुट्ठी भींच कर पाएं।