ध्यानयात्रा

जेन कहानियां

जेन साधिका रियोनेन का जन्म 1797 ई. में जापान में हुआ था। वह प्रसिद्ध जापानी योद्धा शिंगेन की पोती थी। अपने सौंदर्य और काव्य प्रतिभा के बल पर 17 वर्ष की अल्पायु में ही उसका चयन जापान की सम्राज्ञी की सेविका के रूप में हो गया था। कुछ ही समय में रियोनेन सम्राज्ञी के दरबार की बाहैसियत शख्सीयत बन गई थी। एक दिन अचानक सम्राज्ञी चल बसीं। रियोनेन के सुख स्वप्न का मानो पटाक्षेप हो गया। उसे जीवन की क्षण भंगुरता का एहसास हो चुका था। उसमें जेन की शिक्षा प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा जाग उठी। वह एक घुमंतु जेन साधिका बनना चाहती थी।  उसके परिवार ने अनुमति नहीं दी और उस पर विवाह करने का दबाव डाला। इस शर्त के साथ कि  तीन बच्चों को जन्म देने के बाद वह संन्यास ले लेगी, उसने विवाह कर लिया। पच्चीस वर्ष की होने से पहले-पहले रियोनेन ने यह शर्त पूरी कर दी थी। अब उसे कोई नहीं रोक सकता था। उसने अपना सिर मुंडवाया, रियोनेन नाम धारण किया और तीर्थयात्रा पर निकल पड़ी। रियोनेन का अर्थ होता है सच्चा ज्ञान। रियोनेन ईडो नामक शहर में पहुंची और जेन गुरु तेत्सुम्यासुग्या से स्वयं को शिक्षा के रूप में स्वीकार करने की विनती की। उसको पलक भर देखकर गुरु ने उसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वह अत्यंत सुंदर थी।  रियोनेन जेन गुरु हाकुओ के पास पहुंची। हाकुओ ने भी उसे यह कह कर शिष्या के रूप में अस्वीकार कर दिया कि उसकी सुंदरता अनेक समस्याओं को जन्म देगी। रियोनेन ने कहीं से एक इस्तिरी हासिल की और उसे गर्म करके अपने चेहरे पर रख लिया। क्षण मात्र में उसका सौंदर्य हमेशा के लिए गायब हो गया। विद्रूप हो जाने पर जेन गुरु हाकुओ ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। अपनी दीक्षा की स्मृति में रियोनेन ने दर्पण के पृष्ठभाग पर एक कविता लिखी।