निवेश के पहलू अनेक

हिमाचल में निवेशकों को आकर्षित करने के पैगाम के साथ मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का विदेश दौरा पूरी प्रक्रिया का अहम पड़ाव साबित हो सकता है और इसीलिए सरकार ने ऐड़ी चोटी का जोर लगा रखा है। हम इसकी उपलब्धियों का खुलासा वर्षों बाद कर सकते हैं, लेकिन इस समय इच्छाशक्ति का प्रदर्शन स्पष्ट और मजबूत दिखाई दे रहा है। यहां निवेश और निवेशक के लिए जो रोडमैप तैयार है, उसकी विवरणिका में हिमाचल का अक्स बदला है। एक तरह से हिमाचल की यह नई प्रस्तुति है, लेकिन पुरानी तस्वीर को भी समझना होगा। उदाहरण के लिए हिमाचल ने अपने साथ ‘सेब राज्य’, पर्यटन राज्य तथा ऊर्जा राज्य होने का संगीत और संकल्प तो जोड़ा, लेकिन इस काबिलीयत को अपनी क्षमता का मुकाम नहीं बना पाया। इसके लिए हिमाचल का आर्थिक गणित और सार्वजनिक उपक्रमों पर एक हद तक दोष देखा जाएगा, लेकिन सच यह है कि निजी क्षेत्र की संभावना पर सरकारी क्षेत्र कुंडली मार कर बैठा है। हिमाचल अपने लिए निवेश तो पहले भी चुनता रहा, लेकिन इसे रोजगार नीति से नहीं जोड़ पाया। कम से कम निवेश के जरिए रोजगार पैदा करने की न तो वकालत हुई और न ही शिक्षण-प्रशिक्षण की ऐसी परिपाटी बनी। हिमाचल की शिक्षा आज भी नए निवेश के मायने नहीं जानती और न ही इसे स्वीकार कर पाई है। ऐसे में जिस निवेश की अभिलाषा हम विदेश से कर रहे हैं, उसकी पहचान वहां के शैक्षणिक स्तर, कार्य संस्कृति व व्यवस्थागत माहौल के अनुरूप होनी चाहिए। जब तक हम जर्मनी-नीदरलैंड सरीखे माहौल की तरफ नहीं बढ़ेंगे, सारा कारवां एक सीमित कसरत बना रहेगा। हिमाचल में सार्वजनिक प्रगति ने निवेश के रास्ते जिस कद्र रोक रखे, उन्हें खोलना होगा। हम अब तक यही समझते रहे कि सारा काम और कारोबार सरकार का है और इसीलिए दारोमदार भी इसी पर रहा। निवेश का सार्वजनिक पक्ष आज भी महत्त्व रखता है, क्योंकि पर्वतीय पक्ष में वर्जनाएं हटाने के लिए सरकार को आगे आना ही होगा, लेकिन विडंबना यह है कि इस तरह के निवेश का सियासी दुरुपयोग होता रहेगा। उदाहरण के लिए तमाम बोर्ड व निगमों के बढ़ते घाटे आज जहां स्थिर व स्थायी होकर भयभीत करते हैं, वहीं ये औचित्य के आगे नहीं टिकते। पर्यटन विकास निगम की कितनी इकाइयां बंद हो गईं या इनके भीतर क्षमता क्यों सो गई, इसका हिसाब लगाएं तो ऐसे निवेश की असमर्थता समझ आएगी। हिमाचल ने तो पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की तरफ भी नहीं देखा, लिहाजा यहां सरकारी ढांचे में निवेश अंधा रहा है। दूसरी ओर पर्वतीय विकास में निवेश का घाटा चिन्हित है। यानी कुछ ऐसे कार्य हैं जो सरकारी दायित्व में ही अपना लेखा-जोखा सुरक्षित रख सकते हैं। लिहाजा हिमाचल के हर निवेश से पहले माकूल अधोसंरचना का विकास ऐसी अनिवार्यता है, जिसका जोखिम राज्य व केंद्र को बिना शर्त उठाना ही होगा। चंबा में सीमेंट प्लांट की स्थापना में संपर्क सड़क पर सार्वजनिक खर्च की वजह बढ़ जाती है, इसी तरह राजनीति से ऊपर नहीं उठे तो निवेशक का विश्वास अर्जित नहीं होगा। पूर्व सरकारों के ‘एमओयू’ को किसी न किसी बहाने खारिज कर देने की प्रथा ने दीर्घआयु निवेश की राहें कम कर दी हैं, तो निवेशक के खिलाफ यह अलार्म है। हमारा मानना है कि हिमाचल को गैरराजनीतिक होकर निवेशक की हिम्मत बढ़ानी होगी। निवेशक को असली प्रोत्साहन उस व्यवस्था के तहत चाहिए, जो किसी प्रकार के रोड़े न अटकाए। अगर शर्तें सत्तर फीसदी हिमाचलियों को नौकरी देने की रहेंगी, तो भी निवेशक अपनी चिंताओं से मुक्त नहीं होगा। जरूरी तो यह भी होगा कि हिमाचल के साथ जुड़ना उसे कितनी पहचान और किस हद तक हिमाचली अधिकार देता है। निवेश के जरिए राज्य अगर आर्थिक स्वाभिमान चाहता है, तो निवेशक के स्वाभिमान की भी गारंटी तय होनी चाहिए। इसके लिए वे तमाम पुरानी फाइलें पलटनी होंगी, जिनमें हिमाचल के नन्हे हाथों से रोपा गया निवेश दिखाई देगा। भले ही लघु निवेश के मानचित्र पर हिमाचल दिखाई देगा, लेकिन छोटे उद्योगपतियों, दुकानदारों, होटल व्यवसायियों, व्यापारियों तथा ट्रांसपोर्टरों को भी उनके योगदान का सौहार्द तो मिले। हिमाचल की कर प्रणाली और नियमावलियों के बीच निवेश के लिए समर्थन की तलब फिलहाल दिखाई नहीं देती और यहां बड़े सुधारों की गुंजाइश है।