पहाड़ की नासमझ

पर्वतीय राज्यों को समझने की फिर एक गलती माननीय उच्च न्यायालय ने पकड़ी है और जो प्रश्न उठे हैं, वे साधारण व सामान्य ज्ञान के हैं। हिमाचल में 69 नेशनल हाई-वे की निर्माण प्रक्रिया के घोषणाई अंदाज ने आज तक जो भी सुर्खियां बटोरी हैं, वे सभी धड़ाम से गिरीं क्योंकि न तो इनकी डीपीआर मुकम्मल है और न ही ये स्वीकृत हैं। हैरानी यह कि अब नेशनल हाई-वे बनाने की नई नीति आ रही है, लिहाजा अगला कदम फिर से उसी शून्यता से उठाना है, जहां से चलने का वादा करके राजनीति चुपचाप गुजर गई। पूर्व मोदी सरकार की उच्च घोषणाओं में से 69 नेशनल हाई-वे, पठानकोट-मंडी तथा धर्मशाला-शिमला फोरलेन परियोजनाएं हिमाचल जैसे राज्य के लिए नए रक्त के संचार की तरह थीं। अब मोदी सरकार के द्वितीय संस्करण तथा राज्य में भाजपा के ही सत्ता आगमन के बाद सही स्थिति यह है कि भविष्य बताएगा कि हिमाचल के नसीब में कितनी सड़क परियोजनाएं आएंगी। उच्च मार्गों के डीपीआर बनाने पर ही 163 में से 24 करोड़ व्यर्थ हो चुके हैं, तो राष्ट्रीय संसाधनों की नुमाइश में हारी तो पर्वतीय महत्त्वाकांक्षा ही। पर्वत की सड़क पुनः मैदान से हारने लगी है और इसीलिए हिमाचल से केंद्र की प्राथमिकताएं नजरें चुराने लगी हैं या तकनीकी अध्ययन के बिना कल तक जो सपने दिखाए गए, वे मिट्टी हो गए। हाल यह है कि वर्तमान नेशनल हाई-वे भी न तो अपने मानदंड पूरे कर रहे हैं और न ही मरम्मत। ऐसे में हिमाचल की असमंजस बढ़ जाती है। एक ओर विस्थापन की तलवार और दूसरी ओर पहाड़ की दरार के सामने राजनीतिक रार। या तो पहाड़ को तरक्की का सपना दिखाना बंद करना होगा या सपनों को उधेड़बुन में फंसाना बंद करना होगा। यह किसी एक राजनीतिक दल पर आक्षेप नहीं, बल्कि केंद्र की हर सरकार के सामने पहाड़ के प्रश्न ‘पहाड़’ ही बने रहे। हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्य की प्राथमिकताएं मैदान से कम नहीं हो सकतीं। यह दीगर है कि हमारे योगदान की जगह सियासत का दम देखा जाता रहा है। ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां हिमाचल को पर्वतीय राज्य होने का घाटा उठाना पड़ता है। पर्वत के प्रति राष्ट्रीय आर्थिक संसाधनों की कंजूसी स्पष्ट है और तर्क में फिजिबिलिटी का अन्याय जारी है। वित्तीय सोच, पर्वतीय विकास के मानक और प्राथमिकताएं जब तक हिमाचल जैसे राज्यों को केवल सियासी इकाई के रूप में देखेंगी, बड़ी से बड़ी घोषणाएं भी रेंगती रहेंगी। अतीत में पर्वतीय राज्यों की व्यथा पर मरहम लगाने की कोशिश अगर हुई भी, तो इस पर लगाम लगाने की राजनीति हुई। औद्योगिक पैकेज गवाह है कि किस तरह तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे खुर्द-बुर्द कर दिया, जबकि केंद्र में आनंद शर्मा वाणिज्य मंत्री थे। हो सकता है इसी तरह का कोई खेल पूर्व घोषित नेशनल हाई-वे तथा फोरलेन परियोजनाओं को लेकर शुरू हो गया हो। अब ये जिम्मेदारी बतौर वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के कंधों पर रहेगी कि वह अपने रसूख का बजट किस तरह सड़क परियोजनाओं को दिला पाते हैं। प्रदेश की आर्थिकी को संवारने के लिए नए दिशा-निर्देश, वित्तीय मदद, नवाचार और आर एंड डी की आवश्यकता है। नीति आयोग ने भी फिलहाल पर्वतीय अंचल को इसी परिप्रेक्ष्य में समझना शुरू नहीं किया है। उदाहरण के लिए हिमाचल के छोटे खेतों में कृषि और बागबानी ही अगर पर्याय है, तो भू-सुधार कानूनों में नए दखल की जरूरत है। पर्वतीय राज्यों में बड़ी सड़क परियोजनाएं अगर फोरलेन की इजाजत नहीं दे रहीं, तो एलिवेटिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम, न केवल नई अधोसंरचना के मानदंड स्थापित करे, बल्कि तकनीकी विकल्प भी आजमाने होंगे। पर्वतीय राज्यों की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप सुरंग मार्ग, डबल डैक मार्ग, मोनो ट्रेन व स्काई बस जैसी परियोजनाओं की फंडिंग केंद्र को करनी होगी, ताकि वाहनों की भीड़ रुके। बढ़ते पर्वतीय यातायात को समझना ही आज के दौर का पर्यावरण संरक्षण होगा और इसके लिए आर एंड डी तथा नवाचार अति आवश्यक है। हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्यों को अपनी आर्थिकी और विकास का हक तभी मिलेगा, जब केंद्र में अलग व स्वतंत्र मंत्रालय या इसी के अनुरूप प्राधिकरण का गठन करते हुए वित्तीय मदद, पर्वतीय विकास के मानक, पर्यावरणीय तथा जलवायु परिवर्तन से जुड़े अनुसंधान, आर एंड डी, नवाचार तथा आर्थिक ढांचे के प्रारूप में केंद्र की मानिटरिंग व दिशा-निर्देश तय होंगे।